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________________ - मार्थिक भावना क्यों न हो, परन्तु यदि वह मात्र चिंतनमें है। अटक जाय तो वह नहीं वत् है। हुई न हुईके बराबर है। चिंतन (Filling) संकल्प (Willing)के प्रदेशमें इसको आगे रखी जाय और वहां इसे कृतिकी पूर्णता पर लाई जाय तो ही उस कृतिके मूलमें रहा हुआ चिंतन सफल गिना जा सकता है। चिंतनकी महिमा मात्र एक कृतिका साधन ही है। जिप्स चिंतनसे संकल्प और कृतिका अनुसरण नहीं होता है वह हमें और जगत दोनोंके लिये व्यय है, कारण कि हम दूसरेके दुःखके लिये कितने ही दुःखी होकर क्यों न बैठ रहे तो भी उससे उस दुःखितका कुछ भी दुःख कम नहीं होता । कदापिहम इस शुभ भावनामें कैसे भी लाम देखनेको जाते हैं तो इसके बदलेमें इतना ही कहा जा सकता है कि इससे हमारे समभाव (Sympathy)का अभ्यास बढ़ता है। उसकी कल्पनासे जगतके दुःखका दृष्टिगत अनुभव होनेसे हम सुखमें उत्पन्न होनेसे वच जाते हैं और हम दुःखके समय सरल दुःखकी कल्पनाके अभ्यासके बलसे कुछ हढ़ रह सके। परन्तु यह लाभ कुछ महत्वका लाम नहीं है और यदि यह महत्वका गिना जाय तो यह दुसरी विधिसे भी प्राप्त हो सकता है। यदि हम हमसे सुखीके साथ हमारे सुखका मुकाबला करे तो हमारी उन्मत्तता और मद बैठ जाता है और दुःखके समय हमें हमारेसे अधिक दुःखी ज़नोंके दुःखके साथ मुकाबला करना चाहिये जिससे कि हमारा दुःख शीघ्र दव जाय ऐसा करनेसे हम संतोषसे रह सकते हैं । इसलिये मात्र माव और चिन्तात्मकपनेकी क्रियाको उल्लेख कर मात्र कृतिके पुण्य प्रदेशमें प्रवेश करना ही सच्ची उदारता है, हृदयका विस्तार है तथा स्वार्थ त्यागसे
SR No.010528
Book TitleMahavira Jivan Vistar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachand Dosi
PublisherHindi Vijay Granthmala Sirohi
Publication Year1918
Total Pages117
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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