SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 58
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ १६ ] -की ओरसे प्रेरित हुआ है और उस सत्ताने हमारे द्वारा विश्वको सुधारनेका कम आरंभ किया है । परन्तु जब जगत् इनके सुखद निश्वयों पर मोहित नहीं होता है और न उस और होता देखते हैं इतना ही नहीं परन्तु जब उनको सुनहरी पुष्पो द्वारा वघानेवाला कोई भी नहीं आता है, तब प्रथम तो उन्हें • आश्चर्य होता है कि क्या होनेवाला है ? हमारी असाधरण तत्वकी बातें सुननेके लिये मनुष्य क्यों दौड़कर नहीं आते हैं ! और किसीको मुद्दत तक न आता देख कर वे गुस्सेमें आजाते हैं भौर सारे विश्वको मूर्ख, अज्ञान, दुर्भव्य, पापमें मस्त रहनेवाले आदि सेकड़ों गालिये देने लग जाते हैं और अपने लाखों भाषणों और लेखों में ऐसा ही प्रयोग करते हैं और अपने आपको इस जगत्के बाहिरकी वस्तु होनेका डौल करते हैं और दूसरे सत्र विश्वको इस अंधार युगमें गिनते हैं अपने अधिक उद्योग पर भी जब वे जगत्का कार्य वीर गति से उसके निय क्रम पर ही देखते हैं तंत्र वे जगत् के कल्याण करनेके विषय में निराशवादी हो जाते हैं । हे उपदेशको ! ज़रा वापिस फिर कर अपने अंदरकी भूमिकाका अवलोकन करो तो तुम्हें दीयेके माफिक साफ रोशन हो जायगा कि तुम जिस निश्चय द्वारा जगत्को चलाना चाहते हो उसका तुम्हें जरा भी अनुभक नहीं है, तुम्हें अपने आपको अभी सेकड़ों तरहसे सुधारना बाकी है । दुनिया सुधार पर भनेको तैयार है परन्तु इसके पहिले तुम्हें सुधर कर आना चाहिये । फिर नगत्को सुधारनेके लिये तुम्हें अधिक बोध भी नहीं देना पड़ेगा । तुम्हारा चरित्र और आचार ही उनके लिये दीयेका कार्य करेगे । . •
SR No.010528
Book TitleMahavira Jivan Vistar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachand Dosi
PublisherHindi Vijay Granthmala Sirohi
Publication Year1918
Total Pages117
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy