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________________ [८९] दिक वृत्तिका जय करके उससे अपनी असंगता, भिन्नता, मरसता साधी थी। मुच्छ के भावमें देहके कष्ठोंको आत्मकष्ठके तौरपर गिने नहीं थे। ज्यों २ कष्ट अधिक तीव्र बनते गये त्यों २ उनका आत्मभाव गाढ़ बनता गया वे उपसर्ग मात्र अपने आमभावके अभ्यासके तौरपर ही मानते थे। कष्ठ यह मात्र मनुप्योको दुःख देनेके लिये ही आता है ऐसा नहीं मानना चाहिये । दुःखके साथ ही मनुष्य चाहे तो उन कष्ठोंसे वह बहुत अमूल्य पाठ सीख सकता है कि जो पाठ साधारण संयोगोमें कभी नहीं सीखे.जासकते मनुप्य हृदय गत अनुभव दुःखके प्रसंगोमेंसे ही प्राप्त कर सकता है। और एक पक्षमें बुद्धिका शिक्षण मनुप्यके कल्याणके लिये उपयोगी है त्यों अन्य 'पक्षमें हृदयका शिक्षण भी उतना ही उपयोगी है और खास करके आत्मश्रेय साधककोको मुख्यतः हृदय शिक्षण ही उपयोगी है। अक्सर यह शिक्षण दुःखके प्रसंग पर जो अनुभव आत्मापर रख जाता है, उसमेंसे मिलता है दुःख धिक्कारने योग्य नहीं है। परन्तु वह दुश्मनके रूपमें मित्रका कार्य करता है अतएव उलटा वह चाहने योग्य है । मात्र मनुप्यको उसका सद् उपयोग करनेका है। उस दुःखानुभवकालमें हमे हमारी भूतकालकी भूलोंका भान होता है। और भाविमें ऐसी भूल न होनेके लिये वैसे ही सद् निश्चय बांधे जाते हैं। बुद्धिमतोको दुःखसे आत्माके निर्मल होनेका अनुभव होता है और आत्मापरसे कितनेक धन आवरण पडते हुए मालूम होते हैं। सची वस्तुस्थितिका, आत्मा अनात्माका और संसारकेस्वरूपका उसको ज्ञान होता है। अनुकूल वेदनीयके-सुखके
SR No.010528
Book TitleMahavira Jivan Vistar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTarachand Dosi
PublisherHindi Vijay Granthmala Sirohi
Publication Year1918
Total Pages117
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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