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जग के जड़ दीपक को अब तक,
समझा था मैंने उजियारा । झंझा के एक झकोरे में,
जो बनता घोर तिमिर कारा ॥ अतएव प्रभो ! यह नश्वर दीप,
समर्पण करने आया हूँ । तेरी अन्तर लौ से निज अन्तर,
दीप जलाने आया हं ॥६॥ ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यो अज्ञान विनाशनाय दीपं निर्वपामि । जड़ कर्म घुमाता है मुझको,
यह मिथ्या भ्रान्ति रही मेरी । मैं राग-द्वेष किया करता,
जब परिणति होती जड़ केरी ।। यों भाव करम या भाव मरण,
__सदियों से करता आया हूं। निज अनुपम गंध अनल से प्रभु,
पर गंध जलाने आया हूं ॥७॥ ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यो विभावपरिणति विनाशनाय धूपं नि० जग में जिसको निज कहता मैं,
वह छोड़ मुझे चल देता है। मैं आकुल व्याकुल हो लेता,