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ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यो मान कषाय मल विनाशनाय अक्षतं निर्वपा०
यह पुष्प सुकोमल कितना है, तन में माया कुछ शेष नहीं । उर अन्तर का प्रभु ! भेद कहूं, उसमें ऋजुता का लेश नहीं ॥ चिंतन कुछ, फिर संभाषण कुछ, किरिया कुछ की कुछ होती है । स्थिरता निज में प्रभु पाऊं जो,
अन्तर का कालुप धोती है ॥४॥
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यो माया कषाय मल विनाशनाय पुष्पं
निर्व०
अब तक अगणित जड़ द्रव्यों से,
प्रभु ! भूख न मेरी तृष्णा की खाई खूब
शान्त हुई । भरी,
पर रिक्त रही वह रिक्त रही । युग युग से इच्छा सागर में,
प्रभु ! गोते खाता आया हूं। पंचेन्द्रिय मन के पट् रस तज,
अनुपम रस पीने आया हूं ||५|| ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यो लोभ कषाय मल विनाशनाय नैवेद्यं निबं०