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देव-शास्त्र-गुरु-भाषा- पूजा
[ जुगल किशोर ]
स्थापना
केवल रवि किरणों से जिसका,
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सम्पूर्ण प्रकाशित है अन्तर । उस श्री जिनवाणी में होता,
तत्त्वों का सुन्दरतम दर्शन ॥ सद्दर्शन-बोध-चरण-पथ पर,
अविरल जो बढ़ते हैं मुनिगण । उन देव परम आगम गुरु को,
शत शत वंदन शत शत वंदन ॥
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुसमूह अत्र अवतर अवतर संवपट् । ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुम्ममूह अत्र तिष्ठ तिठ ठः ठः ॐ ह्रीं देवशास्त्र गुरुसमूह अत्र मम सन्निहितो भव भव वपट् ।
इन्द्रिय के भोग मधुर विप सम,
लावण्यमयी कंचन यह सब कुछ जड़ की क्रीड़ा है,
मैं अब तक जान नहीं पाया ॥ मैं भूल स्वयं के वैभव को,
काया ।
पर ममता में अटकाया हूं । अब सम्यक् निर्मल नीर लिये,