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जिनको ध्वनि ह्व ओंकाररूप,
निरअक्षरमय महिमा अनूप । दश-अष्ट महाभाषा समेत,
लघुभाषा सात शतक सुचेत ॥ सो स्याद्वादमय सप्तभंग,
__ गणधर गूंथे बारह सुअंग । रवि शशि न हर सो तम हराय,
सो शास्त्र नमों बहुप्रीति ल्याय ॥ गुरु आचारज उवझाय साध,
तन नगन रतनत्रयनिधि अगाध । संसार-देह वैराग धार,
निरवांछि तपै शिवपद निहार ।। गुण छत्तिस पच्चीस आठवीस,
भवतारन तरन जिहाज ईस । गुरुकी महिमा वरनी न जाय, गुरु नाम जपों मन वचन काय ।।
सोरठा कीजे शक्ति प्रमान शक्ति बिना सरधा धरै । 'द्यानत' सरधावान अजर अमर पद भोगवे ।। ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरु भ्यो महायं निर्वपामीति स्वाहा ।