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तसु भ्रमरलोभित घ्राणपावन सरस चन्दन घसि सचूं । अरहंत श्रुत-सिद्धान्त गुरु- निरग्रंथ नित पूजा रचूं ॥
दोहा
चंदन शीतलता करें तपत वस्तु परवीन । जासों पूजों परमपद देव शास्त्र गुरु तीन ॥२॥ ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यो संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपा०
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यह भवसमुद्र अपार तारण के निमित्त सुविधि ठई । अति दृढ़ परमपावन जथारथ भक्ति वर नौका सही ॥ उज्जल अखंडित सालि तंदुल पुंज धरि त्रयगुण जचूं | अरहंत श्रुत-सिद्धान्त गुरु-निरग्रंथ नित पूजा रचूं |
दोहा
तंदुल सालि सुगंधि अति परम अखंडित बीन । जासों पूजौं परमपद देव शास्त्र गुरु तीन ॥३॥ ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपा० ।
जे विनयवंत सुभव्य-उर- अंबुजप्रकाशन भान हैं । जे एक मुख चारित्र भाषत त्रिजगमाहिं प्रधान हैं || लहि कुंदकमलादिक पहुप भव भव कुवेदनसों बचूं | अरहंतश्रुत-सिद्धान्त गुरु-निरग्रंथ नित पूजा रचूं ॥