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तीन रतन जगमाहिं सो ये भवि ध्याइये। तिनकी भक्तिप्रसाद परमपद पाइये ॥१॥
दोहा पूजों पद अरहंत के पूजों गुरुपदसार । पूजों देवी सरस्वती नितप्रति अष्टप्रकार ॥२॥ ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुसमूह ! अन अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं देवशास्वगुरुसमूह ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः ।
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुसमूह ! अनमम सन्निहितो भव भव वषट् ।
गीता छन्द सुरपति उरग नरनाथ तिनकरि वन्दनीक सुपदप्रभा। अति शोभनीक सुवरण उज्जल देख छवि मोहित सभा। वर नीर क्षीरसमुद्र घट भरि अग्र तसु बहुविधि नचूं । अरहंत श्रुत-सिद्धान्त गुरु-निरग्रंथ नित पूजा रचूं ॥१
दोहा मलिन वस्तु हर लेत सब जल-स्वभाव मलछीन । जासों पूजों परमपद देव शास्त्र गुरु तीन ॥१॥ ____ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यो जन्म जरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपा० ॥१॥ जे त्रिजग-उदर मझार प्रानी तपत अति दुद्धर खरे। तिन अहितहरन सुवचन जिनके परम शीतलता भरे॥