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गुणवंत अनंत अबाध भये । हरि आय जजें तित मोद धरें,
हम पूजत ही सब पाप हरें ॥ ॐ ह्रीं फाल्गुनशुक्लसप्तम्यां मोक्षमंगलमण्डिताय श्रीचन्द्र प्रभजिनेन्द्राय अर्घ निवंपामीति स्वाहा।
जयमाला
दोहा
हे मृगांक-अंकितचरण, तुम गुण अगम अपार । गणधरसे नहि पार लहि, तौ को वरनत सार ॥१॥ पं तुम भगति हिये मम, प्रेरै अति उमगाय । तात गाउँ सुगुण तुम, तुम ही होउ सहाय ॥२॥
छन्द पद्धरी (१६ मात्रा) जयचंद्र जिनेंद्र दया-निधान,
भव • कानन-हानन-दव-प्रमान । जय गरभ-जनम-मंगल दिनन्द,
भवि जीव-विकाशन शर्म-कंद ॥ दश लक्ष पूर्वकी आयु पाय,
मन-वांछित सुख भोगे जिनाय ।