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हैं नर नारी वे ही सच्चे, पर मन में नहीं लावे | शुद्ध प्रेम को सार समझकर, हृदय प्रभु को ध्यावे रे ।स।७० । रावण पद्मोत्तर कीचक का, जो लिखा है हाल | उसको सोच समझ कर बुधजन, फँसते न मोह की जाल रे ।स।७१ । वमन-पात्र सम परनारी का, मन से तजते ध्यान । वे ही वर हैं उत्तम कुल के, जो पाये गुरु से ज्ञान रे ।स।७२ । वहरा-अंधा-मूक-पुरुष से, पापी नर का भार | धरा न सहती समझो राजा, मरना है श्री कार रेस |७३ | अमृतमय तब वचन श्रवण कर, चित्त में पाया चैन । एक बार मुझ प्रत्पक्ष होओ, यो बोला नृप वैन रे ।स।७४ । अतिगृद्ध जब नृप को देखा, सासू लाई बुलाय | युग वाहु का महल पुत्र! यह, मात कहै समझाय रे ।स।७५ | हो अति लज्जित चला राय मन, उलटा किया विचार । जव लग बांधव जीवे तब लग, हुवै न मेरा कार रे ।स।७६ । लक्ष्मी सम नारी का मुझको, जिससे है अंतराय | नारा करूं मैं उस भाई का, कुमति धरी मन मांय रे |स ।७७। सव से यश ले युग बाहुजी, देश साध घर आया। मन मैला मणिरथ यों बोला, मुख देख्यां सुख पाया रे |स |७८ |
चउपाइयाँ
हे वीर! कहो समझाई, क्या कार्य किया मुझ भाई ! ।।१।। नहीं युद्ध हुआ महाराया !, सब को धर्म-भाव समझाया ।।२।। दुखी जन को दुःख जो देवे, अपना सुयश नष्ट कर लेवे ।।३।। राजतेज रसातल जावे, अपयश से नष्ट हो जावे ।।४।। यही वात कुंवर समझाई, वैरभाव दिया है मिटाई ।।५।। शांति सर्वत्र है वरताई, महिमा सव जन रहे गाई ।।६।। राय मन नहीं वचन सुहाये, मानो कमल में आग लगाये ।।७।। कपटभाव से यों मुख वोला, मेरा भाई है जग अनमोला ||८|| भाई! नीति मुझको सुहाई, राजलक्ष्मी न सके ललचाई ।।६।।