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स्त्री-शिक्षा
१-शिक्षा का प्रभाव शिक्षा मनुष्य के नैतिक और सामाजिक स्तर को ऊंचा उठाने का साधन है। वह जीवन को सभ्य, सुसंस्कृत एवं सहानुभूतिशील बनाने की योग्यता प्रदान करती है। वर्तमान में शिक्षा प्राप्ति के उद्देश्य को ध्यान में लेकर, उसकी परिभाषा संकुचित क्षेत्र में करते हुए चाहे उसे हम अर्थप्राप्ति का साधन कहें पर ऐसा कहना मूलतः गलत होगा। शिक्षा का उद्देश्य कभी अर्थप्राप्ति नहीं। सामाजिक क्षेत्र में शिक्षा जीवन के वातावरण को अधिक सुखमय और सरस बनाती है —हमें निचाई से ऊंचाई पर प्रतिष्ठित करती है। वह एक प्रकार का नव जीवन सा प्रदान करके कई बुराइयों से बचाकर अच्छाइयों की ओर ले जाने को प्रेरित करती हैं।
मानव इतिहास की ओर हलका-सा दृष्टिपात करने पर हमें शिक्षा की उपयोगिता और उसका प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर हो जायगा। किसी जमाने में मनुष्य आज की भांति सभ्य एवं संस्कृत नहीं थे। उनका खान-पान, रहन-सहन तथा वातावरण बिल्कुल भिन्न था। वृक्षों के वल्कल धारण कर अथवा नग्न ही रह कर अपना जीवन-यापन करते थे। माता, पिता, बंधु आदि के प्रति भी जैसे स्नेह और कर्तव्यपालन की दृष्टि होनी चाहिए, वैसी न थी। यों कहना चाहिए कि कौटुम्बिक भावना ही जागृत नहीं हुई थी। न उनका कोई निश्चित निवास स्थान था
और न कोई निश्चित वस्तुएँ ही थीं, जो उनके भोजनादि के प्रबन्ध के लिए उपयुक्त थीं। जहाँ जो चीज मिल गई, उसी का उपयोग करते थे। और जहाँ रात्रि में स्थान मिला, विश्राम करते थे। न वहाँ कोई सामाजिक अथवा राजनीतिक बन्धन थे और न कायदे कानून | मनुष्य अपने आप में ही सीमित था और प्रकृति पर ही निर्भर था।
लेकिन आज....? सामाजिक जीवन में आकाश और पाताल का अन्तर है। यही शिक्षा का प्रभाव है। इसी मापदण्ड से हम शिक्षा की उपयोगिता का अनुमान सहज ही लगा सकते हैं। जीवन में जितनी जागृति और उन्नति होती है, वह केवल शिक्षा से ही। जैन शास्त्रों के अनुसार इस युग में प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेवजी ने ही सर्व प्रथम शिक्षा का प्रचार किया था। उन्होंने ही कृषिविद्या, पाक विज्ञान, बुनाई विज्ञान आदि की शिक्षा लोगों को दी। पुरुषों के लिए बहत्तर कलाएं दी तथा स्त्रियों के लिए चौसठ । इस प्रकार लोगों को सभी प्रकार से शिक्षित कर उन्होंने सभ्यता तथा संस्कृति का प्रथम पाठ पढ़ाया। तभी से आज तक वह परम्परा अबाध गति से चली आ रही है। यद्यपि समय-समय पर राजनैतिक परिस्थितियों के अनुसार उसमें परिवर्तन भी बहुत हुए।
शिक्षा को हम मुख्य रूप से दो भागों में विभाजित कर सकते हैं --(१) फल-प्रदायिनी (२) प्रकाशिनी । फल-प्रदायिनी शिक्षा विशेष रूप से मनुष्य का सामाजिक स्तर ऊंचा लाती है। किस प्रकार से भिन्न-भिन्न कार्य किए जाने पर उत्तम रीति से पूर्ण होंगे, वह इसमें बताया जाता है। सिलाई, बुनाई, कृषि, शरीर-विज्ञान आदि शिक्षा इसी कोटि में आ सकती है।
प्रकाशिनी शिक्षा क्रियात्मक रूप से किसी विशेष कार्य की पूर्णता के लिए नहीं होती। उसका कार्य है—भिन्न-भिन्न वस्तुओं के गुणों और उनके प्रभाव पर प्रकाश डालना। भौतिक वस्तुओं के सिवाय आध्यात्मिक क्षेत्र में भी इसकी पहुँच रहती है। दर्शन, धर्मशास्त्र, रसायनशास्त्र, इतिहास, भूगोल आदि को हम इसके अन्तर्गत ले सकते हैं। यह शिक्षा भी परोक्ष रूप से जनता के सामाजिक स्तर को उन्नत करने में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त करती है। आध्यात्मिक क्षेत्र में भी यह लोगों के नैतिक स्तर को ऊंचा उठाती है।