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वैश्य वर्ग को चेतावनी भी दी कि 'खादी के अतिरिक्त विदेशीय अन्य विलासपरक वस्त्रों को पहनना या अन्य कार्य में लाना गरीबों की झोंपड़ियों में आग लगाने के समान है। आपने (वैश्य वर्ग ने) गरीबों की झोंपड़ियों में बहुत आग लगाई है, अब करुणा करके मजूर बनकर प्रायश्चित कर डालिये।'
वैश्य वर्ग का कृषि व अन्य उत्पादक कार्यों की तुलना में व्यापार को 'अहिंसा की दृष्टि' से श्रेष्ठ मानना दंभ और भ्रम है। जैन शास्त्र में कृषि को वैश्य कर्म बतलाया गया है। कृषि, पशुपालन करने से ही वैश्य कहलाता है। वैश्य का प्रधान कर्म कृषि करना है। शास्त्रों में दो प्रकार की आजीविका बतलाई गई है। उत्पादन कार्य, कृषि, - पशुपालन आदि प्रधान-आजीविका और वस्तुओं का विनिमय-उत्तर आजीविका। कृषि को अनर्थ आजीविका नहीं कहा गया है। मूल आजीविका के बिना उत्तर आजीविका टिक नहीं सकती। कृषि और उत्पादन के विना जीवनयापन और व्यापार असंभव है।
आचार्य श्री ने कहा है 'मित्रों बहुत लोग खेती करने वालों को और मिट्टी के बर्तन बनाने वालों को जो खरी मेहनत करके निर्वाह करते हैं, पापी समझते होंगे। परन्तु मैं तो अनेक बड़े-बड़े धनवानों को उनसे कहीं अधिक पापी मानता हूँ जो गद्दियों पर पड़े ब्याज खाते हैं या ऐसे किसी व्यापार द्वारा गरीबों को चूसते हैं, अपने हाथ से कुछ भी नहीं करते।'
___ 'वैश्यों का कर्तव्य संग्रह करना हो सकता है परन्तु यह संग्रह स्वार्थमय परिग्रह नहीं बन जाना चाहिये । वश्यों को न केवल समाज और देश की भलाई के लिये ही वरन अपनी आत्मिक उन्नति के लिये भी परिग्रह से बचना चाहिये।
आदर्श वैश्य संसार की माता की तरह संग्रह करता है जोंक की तरह नहीं, जो इस बात का ध्यान रखता है वह दयालु, करुणाशील और धर्मात्मा कहा जायेगा क्योंकि उसकी जीविका धर्म की जीविका है, अधर्म ' की नहीं।'
आचार्य श्री की मान्यता है कि ___ 'सच्चा राष्ट्र प्रेमी वह है जो अपनी सम्पत्ति को राष्ट्र की सम्पत्ति समझता है। उसके मन में वह उसका मान होता है। अतएव राष्ट्र व समाज की आवश्यकता के समय वह अपनी तिजोरी वन्द नहीं रख सकता।'
आचार्य श्री जवाहरलालजी ने महर्षि दयानन्द और महात्मा गाँधी द्वारा भारतीय समाज में व्याप्त भीपण अस्पृश्यता' के उन्मूलन हेतु 'अन्त्यजोद्धार' के महान समाज कार्य को खुला समर्थन दिया। जैन धर्म में ५५ व कुलवाद का स्थान नहीं है अपितु कर्म व गुणवाद को स्थान है। किसी भी कुल के प्राणी को धर्म का
पर है। जन्म व कुल से नहीं अपितु सद्कर्म और सद्गुण से 'कुलीनता' आती है। भगवान् महावीर ने " का वण को मान्य किया है जन्म से नहीं। मनुष्यों के बीच जाति या कुल के आधार पर भेद और
पता शास्त्र-विरुद्ध है। जैन शास्त्र में कहीं भी नीच गौत्र को अछूत नहीं माना गया है। नीच गोत्र और ... अस्पता का कोई अविनाभाव सम्बन्ध नहीं है।
जा लोग आपकी सेवा कर रहे हैं. उन्हें आप क्यों भल रहे हैं। उनके प्रति जघन्य व्यवहार क्यों करते पाल कुल में उत्पन्न विकेशी अन्त्तर धर्म का पालन कर सकते हैं तव और क्या कमी रह गई जिसके
" का जाती है। किसी भी जैन शास्त्र में ऐसा उल्लेख नहीं मिल सकता कि अमुक जाति के मनच
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जय चाण्डाल कुल मा
से घृणा की जाती है। किसी में एलेने से कोई भ्रष्ट होता है।'