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पूज्य आचार्यश्रीजी की जीवन यात्रा नवकार मंत्र के तीसरे पद की सजीव, प्रांजल तथा प्राणमयी तीर्थयात्रा है। नेप्टिक ब्रह्मचर्य के रथ पर सत्य के ध्वज को लेकर अहिंसा के परम धर्म को अपनी आत्मा में स्थापित कर अचौर्य एवं अपरिग्रह के संदेश को जन-जन तक पहुँचाने वाले उस महामनीषी को शत-शत नमन है। वे शिक्षण संस्थाओं, आतुरालय, औषधि-भण्डार, ज्ञान-भण्डार जैसी समाजोपयोगी अनेक प्रवृत्तियों के प्रेरक रहे हैं। लोगों के हृदय पर शासन करने वाले अजातशत्रु की तरह जीने वाले महावीर के मार्ग पर चलने वाले इस आत्मरधी में आचार्य-परम्परा का एक चैतन्य मय नक्षत्र विराजित था। इसीलिए वे आचार्य रलों में सर्वोत्तम दीप्ति वाले एक अद्वितीय रल थे। हमने उन्हें महात्मा मोती का जवाहर कहा है। जैन शास्त्रों की एवं जैन धर्म की स्वाति नक्षत्रीय वृंद जब किसी श्रावक, श्राविका, साधु, साध्वी की मन सीपी में निर्झरित होती है, तब कहीं वह मोती बनती है। यह आकाश की देन है, परन्तु जब कोई कोयला धरती के गर्भ में सहस्त्रों वर्ष तप करता है, तब उसकी सारी मामलता, कालिमा निर्मूल हो जाती है, तब कहीं किसी आदिवासी अंचल में शोध के पश्चात् जवाहर का अभ्युदय होता है।
थांदला के इस सलोने हीरे का तराशना और उसे किसी महान-परम्परा में दीक्षित कर राष्ट्र धर्मी रूप देना, परम्परा तथा संस्कार का ही परिणाम है।
____भारतीय समाज में महात्मा तिलक ने मदन मोहन मालवीय ने महात्मा गांधी ने और लोह पुरुष श्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने जवाहराचार्यजी में इस महान राष्ट्र की आत्मा की छवि के दर्शन किए, इसलिए जवाहराचार्य का विहार, उनका चातुर्मास, उनका प्रवचन, उनके उपदेश, भारत की आत्मा को आलोकित करने सा था। इसलिए वे अपने युग के राष्ट्राचार्य थे, जिनके पदचाप पर सुषप्त राष्ट्र, शंखनाद कर अंगड़ाई लेता था। नक वस्त्रों के पहनाव से, खादी के धागे से राष्ट्र की अर्थव्यवस्था को सम्बल मिलता रहा; जिनकी वाणी से वर्ण
विष सहज ही मधु संस्कृति में परिणत हो गया। जहां वे थम गए वहीं तीर्थ बन गया। तीर्थ जैन शास्त्रों
भदम
का पारिभाषिक शब्द है।
वह आत्मशोधन की आध्यात्मिक-प्रक्रिया है, जिसमें युद्ध संघर्ष और विषमता, शांति सुख और समता
में परिणत हो जाती है। .