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• संसार सम्वन्धी लालसाओं को बढ़ाना दुःख है और लालसाओं पर विजय प्राप्त करना सुख है। • द्रव्य पर अपना अधिकार न समझो। द्रव्य का अपने आपको ट्रस्टी मात्र समझो और सार्वजनिक हित में द्रव्य
का उपयोग करो। इसी को द्रव्य यज्ञ कहते हैं। • अगर 'मैं' और 'मेरी' की मिथ्या धारणा मिट जाय तो जीवन में एक प्रकार की अलौकिक ऋजुता, निरुपम
निस्पृहता और दिव्य शांति का उदय हो जाय । • धर्म सत्य है और सत्य सर्वत्र एक है, फिर धर्म अनेक कैसे हो सकते हैं ? अतः धर्म एक है, अनेक नहीं। • आत्म-बल से सम्पन्न महात्मा मृत्यु का आलिंगन करते समय रंचमात्र भी खेद नहीं करते। मृत्यु उनके लिए सघन
अन्धकार नहीं है, वरन् स्वर्ग-अपवर्ग की ओर ले जाने वाले देवदूत के समान है। • जिस मनुष्य के हृदय में थोड़े-से भी सुसंस्कार विद्यमान हैं, वह गुणीजनों को देखकर प्रमुदित होता है। . मानव-स्वभाव की यह आन्तरिक वृत्ति है, जो नैसर्गिक है। • तमाखू ज्ञान-तंतुओं पर विनाशक प्रभाव डालती है। हृदय को दुर्वल वनाती है। मन को भ्रान्त करके स्मरण शक्ति
की जड़ उखाड़ फेंकती है। • शराब वह पिशाचिनी है जो मनुष्य को एक बार अपने अधीन करके उसका सत्व चूस लेती है। • बाहरी चमक-दमक को सुन्दर रूप मत समझो। जिस रूप को देखकर पाप कांपता है और धर्म प्रसन्न होता है,
वही सच्चा सुरूप है-सौन्दर्य है। • जो अपने आपको द्रष्टा और संसार को नाटक रूप देखता है, सारी शक्तियाँ उसके चरणों की सेवा करने को
तैयार रहती हैं। • 'कण्टके नैव कण्टकम्' नीति के अनुसार कुसंग का त्याग करने के लिए सत्संग का आश्रय लेना कर्तव्य हो
जाता है। • मनुष्य को सद्गुणों के प्रति नम्र और दुर्गुणों के प्रति कठोर होना चाहिए।