SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 99
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम श्रध्याय [ ७५ ] पाँच प्रकार का चारित्र यह है -- (१) सामायिक (२) छेदोपस्थापना (३) परिहर विशुद्धि (४) सूक्ष्मसाम्पराय और (५) यथाख्यात । [१] सामायिक चारित्र - सदोष व्यापार का त्याग करना और रत्नत्रय - वर्द्धक व्यापार करना सामायिक चारित्र है । [२] छेदोपस्थापना -- प्रधान साधु द्वारा दिये हुए पांच महाव्रतों को छेदोपस्थापना चारित्र कहते हैं । [३] परिहार विशुद्धि - गच्छ से पृथक् होकर नौ साधु श्रागमोक्त विधि के अनुसार अठारह महीने तक एक विशिष्ट तप करते हैं, वह परिहार - विशुद्धि चारित्र है । [४] सूक्ष्म साम्पराय -- दसवें गुणस्थान में पहुंचने पर, जो चारित्र होता है है वह सूक्ष्म साम्पराय चारित्र है । ! ५ यथाख्यात चारित्र कषायों का सर्वथा जय या उपशय हो जाने पर जो आत्म-रमेण रूप चारित्र होता है वह यथाख्यात चारित्र कहलाता है । यही चारित्र मोक्ष का साक्षात् कारण है । इस काल में अन्तिम तीन चारित्रों का विच्छेद हो गया है । आठवाँ निर्जरा तत्त्व है। पूर्वोपार्जित कर्मों का फल भोगने के पश्चात् कर्म आत्म प्रदेशों से झड़ जाते हैं, उसीकों निर्ज़ग कहते हैं । निर्जरा के मुख्य दो भेद हैं-संकाम निर्जरा तथा काम निर्जरा। कहा भी है समार बीजभूतानां कर्मणां जग्णादिह । निर्जरा सा स्मृता द्वेधा सकामा काम वर्जिता ॥ अर्थात- संसार के कारण भून कर्मों के जरण- जीर्ण होने से निर्जरा होती है वह सकाम और अकाम के भेद से दो प्रकार की है । 'मेरे कर्मों की निर्जरा हो जाय' इस प्रकार की अभिलाषा पूर्वक तपस्या के द्वारा कर्मों का विग्ना सकाम निर्जरा है और बिना इच्छा के, फल देने के पश्चात - कर्मों का स्वयं खिर जाना काम निर्जरा है । काम निर्जग योगियों को होती है, क्योंकि वे कर्मों का क्षय करने के लिए ही तपस्या करते हैं. लौकिक मान-प्रतिष्ठा आदि की प्राप्ति के लिए तपस्या करने का 'आगम में निषेध है। अकाम निर्जरा एकेन्द्रिय आदि सब संसारी जीवों को प्रतिक्षण होती रहती है । एकेन्द्रिय जांव शात उष्ण शस्त्र आदि के द्वारा असातावेदनीय कर्म भोग कर, भुक्त कर्म को श्रात्म-प्रदेशों से पृथक करते हैं. विकलेन्द्रिय जीव भूख-प्यास आदि के द्वारा, पंचेन्द्रिय जीव छेदन-भेदन आदि के द्वारा, नारकी जीव क्षेत्र जन्य, परस्पर-जन्य और परमाधामी देवों द्वारा जन्म वेदना द्वारा, इसी प्रकार देव किल्वि'पता श्रादि के द्वारा असातावेदनीय को भोग कर उसे श्रात्मप्रदेशों से अलग करते हैं। यह सब काम निर्जरा है । *** N 2.39 M
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy