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षद्रव्य निरूपण अवोध वालक श्राग में जलकर या पानी में डूबकर मरने की तैयारी में हो तो उसे मृत्यु से बचाना अधर्म है। यही नहीं, वचाने की भावना हृदय में उत्पन्न होना अथवा बचाने वाले को भला जानना भी अधर्म है । दिल में दया की भावना लाने से भी पाप लगता है।
इस प्रकार की जिनागम से विपरीत प्ररूपणा करके इन लोगोंने धर्म के मूल में कुठाराघात किया है और अनेक कोमल-हृदय. मनुष्यों के हृदय में निर्दयता की भावना भर कर उन्हें कठोर बना दिया है। इन्होंने भगवान् के धर्मोपदेश के प्रयोजन . को ही सर्वथा नष्ट कर दिया है। प्रश्न-व्याकरण में कहा है
'सब जग जीव रक्खणदयट्ठयाए पावयणं भगवया सुकहियं ।'
अर्थात् जगत के समस्त जीवों की रक्षा और दया क लिए भगवान् ने प्रवचन का उपदेश दिया है।
भगवान् न प्रवचन का उपदेश तो इसलिए दिया कि जीवों की रक्षा और दया. की जाय, पर मिथ्यात्व के प्रवल उदय से लोगों ने प्रवचन का यह सार निकाला है कि जीवों की रक्षा न की जाय और उन पर दया भाव न लाया जाय ! मोह की माया अपरम्पार है।
दया, परोपकार और रक्षा की बदौलत ही संसार के प्राणी जीवित रहकर धर्म का आचरण करने योग्य बनते हैं। माता गर्भ का पालन-पोषण करने में अधर्म समझकर अगर गर्भ-रक्षा न करे तो धर्म-तीर्थ किस प्रकार चलेगा ? तथा क्या वह माता घोर निर्दयता पूर्वक गर्भ के विनाश का कारण नहीं बनेगी ? इसी प्रकार मातापिता की सेवा करने में यदि अधर्म होता तो ठाणांग सूत्र में माता-पिता के अलौकिक उपकार का वह प्रभावशाली वर्णन किया जा सकता था ? यह सब बाते इतनी निःस्सार हैं कि इनका प्रति-विधान करने कि आवश्यकता ही अधिक नहीं है ।
पुण्य को एकान्ततः संसार का कारण कह कर उसे हेय बताना भी अज्ञान है । पाप का विनाश करने के लिए पुण्य अनिवार्य रूप से श्रावश्यक है अतः वह मोक्ष का भी कारण है । मनुष्य भव की प्राप्ति पुण्य के बिना नहीं होती और मनुष्य भव के बिना मोक्ष नहीं मिलता। इसी प्रकार पंचेन्द्रिय जाति और नल पर्याय भी पुण्य के हैं। प्रताप से प्राप्त होती है भार इनके बिना भी मोक्ष की प्राप्ति असंभव है। इससे यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि पुण्य के विना मुक्ति नहीं मिल सकती। फिर भी पुण्य को जो लोग एकान्त संसार का कारण बतलाते हैं उनका कथन किस प्रकार शास्त्र-संगत माना जा सकता है ?
शंका-'पुण्य-पापक्षयो मोक्षः' अर्थात् पुण्य और पाप का सर्वथा नाश होने पर मोक्ष होता है; यह जिनागम की मान्यता है। जब तक पुण्य का उदय बना रहेगा तब तक मोक्ष नहीं मिल सकता । प्रारंभ में बस-पर्याय, पंचेन्द्रिय जाति और मनुष्यभव आदि की प्राप्ति के लिए पुण्य की आवश्यकता भले ही हो पर अन्त में तो