SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 765
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ठारहवां अध्याय ७०३ ]. इस प्रकार अपने अन्तिम शरीर से तृतीय साग न्यून अवगाहना से युक्त सिद्ध भगवान् ऊर्ध्वगति करके, लोक के अर्धभाग में विराजमान हो जाते हैं और अनिर्वचनीय अनुपम अद्भुत, अनन्त और अस्सीम श्रानन्द का अनुभव करते हुए सर्व काल वहीं विराजमान रहते हैं। मूलः-अरूविणो जीवघणा, नाणदंसणसन्निया । अउलं सुहसंपन्ना, उलमा जस्स नस्थि उ॥२७॥ छाया:-अरूपिणो जीवघना:, ज्ञानदर्शनसंज्ञिता। . अतुलं सुखं सम्पन्नाः, उपमा यस्य नास्ति तु ॥ २७ ॥ शब्दार्थः-सिद्ध भगवान् अरूपी हैं, जीवधन रूप हैं, ज्ञान और दर्शन रूप है, अतुल सुख से सम्पन्न हैं, जिसकी उपमा भी नहीं दी जा सकती। . भाष्यः-सिद्ध भगवान् की स्थिति आदि का वर्णन करने के पश्चात् उनके सुख आदि का यहाँ वर्णन किया गया है। श्रात्मा स्वभावतः अरूपी है किन्तु नाम कर्म के अनादिकालीन संयोग के कारण वह रूपी हो रहा है। रूपी होना आत्मा का स्वभाव नहीं, विभाव है। यह विभाव परिणति तभी तक रहती है जब तक उसका कारण विद्यमान रहता है। विभाव परिणति के कारण का प्रभाव होने पर विभाव परिणति का भी प्रभाव हो जाता है। इस विभाव परिणति का कारण कार्माण पुद्गलों का संयोग जव नष्ट हो जाता है तब आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप में आ जाता है। अरूपी मन या अमूर्तिकता से आत्मा का असली स्वभाव है, अतएव कर्मों का नाश होने पर सिद्ध भगवान् अरूपी हो जाते हैं। सिद्ध भगवान् के अात्मप्रदेश सघन हो जाते हैं, क्योंकि शरीर संबंधी पोल . को वे परिपूर्ण कर देते हैं और इसी कारण उनकी अवगाहना शरीर से निभाग न्यून होती है। सिद्ध भगवान् ज्ञान-दर्शन-स्वरूप हैं। तात्पर्य यह है कि श्रात्मा का स्वभाव उपयोग है । तत्त्वार्थसूत्र में कहा भी है-'उपयोगो लक्षणम्' अर्थात् आत्मा का लक्षण या असाधारण धर्म उपयोग है । उपयोग का अर्थ है-ज्ञान और दर्शन । सिद्ध भगवान् श्रात्मा के शुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर लेते हैं, इसका अर्थ यही हुआ कि वे शुद्ध ज्ञान-दर्शन-स्वरूपता प्राप्त कर लेते हैं । अतएव ज्ञान-दर्शन-रूप से ही उनका कथन किया जा सकता है। सिद्ध भगवान् अतुल सुख से सम्पन्न हैं । अतुल का अर्थ है-जिसकी तुलन, किसी से नहीं हो सकती, जो अनुपम है । सिद्ध भगवान् को जो सुख प्राप्त है उसकी .. तुलना संसार के किसी भी सुख से नहीं हो सकती। कुछ लोगों का खयाल है कि मुक्त अवस्था में इन्द्रियों का अभाव होने के .
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy