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________________ ni [ ६६८ ] मोक्ष स्वरुप जैसे मूल के सूख जाने पर वृक्ष को जल ले कितना ही लींचा जाय पर वह फिर हरा-भरा नहीं हो सकता, इसी प्रकार कर्मबंध के मूल कारण रूप मोहनीय कर्म का सर्वथा अभाव हो जाने पर फिर कर्म का कभी बंध नहीं हो लकता। तात्पर्य यह । है कि जो श्रात्मा एक बार निष्कर्म हो गया है वह फिर कालान्तर में सकर्म नहीं हो .. सकता। कों का प्रध्वंसाभाव होने पर सिद्ध अवस्था प्राप्त होती है। प्रध्वंलाभाव सादि अनन्त होता है-वह अभाव एक बार होकर फिर मिटता नहीं है। कर्मबंध का कारण मोहनीय कर्म है । मोहनीय कर्म रूप विकार ही श्रात्मा में नवीन विकार उत्पन्न करता है। पूर्वबद्ध कर्म जब उदय में आते हैं तब जीव राग-द्वव श्रादि रूप विभाव रूप परिणत होता है और उस परिणति से नवीन कर्मों का बंध होता है। इस प्रकार पूर्वोपार्जित कर्म नवीन कर्मार्जन के कारण होते हैं। यह कार्यकारण-भाव अनादिकाल से चला पाता है। जब आत्मा विशिष्ट संवर के द्वारा नवीन कर्मों का श्राव रोक देता है और विशिष्ट निर्जरा के द्वारा पूर्वबद्ध कर्मों का क्षय करता है तो एक समय ऐसा था जाता है जब पहले के समस्त कर्म क्षीण हो जाते हैं और नवीन कर्मों का आगमन नहीं होता। ऐसी अवस्था में जीव निष्कर्म हो जाता है और फिर सदा निष्कर्म ही रहता है। किसी-किसी मत में मुक्त जीवों का फिर संसार में श्रागमन होना माना गया है, पर जो जीव संसार में पुनरवतीर्ण होता है वह वास्तव में मुक्त नहीं है । कहा भी है:- दग्धे वीजे यथाऽत्यन्त, प्रादुर्भवति नाङ्कुरः। कर्मवीजे तथा दग्धे, न रोहति भवाङकुरः॥ अर्थात-जैसे बीज जल जाने पर उसे जैसे अंकुर उत्पन्न नहीं हो सकता, उसी प्रकार कर्म रूप वीज के जल जाने पर संसार रूपी अंकुर उत्पन्न नहीं हो सकता। जैन धर्म की यह विशेषता है कि वह प्रात्मा को परमात्मा के पद पर प्रतिष्ठित करता है, जबकि अन्य धर्म परमात्मा-मुक्त पुरुष को भी प्रात्मा बना देते हैं ! जैन धर्म चरम विकास का समर्थक और प्रगति का प्रेरक धर्म है । वह नर को नारायण तो बनाता है पर नारायण को नर नहीं बनाता। अन्य धर्मों की आराधना का फल लौकिक उत्कर्ष तक ही सीमित है, जब कि जैन धर्म की आराधना का फल परमात्मपद की प्राप्ति में परिसमाप्त होता है, जिससे बढ़कर विकास की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इस पर समस्त कर्मों का क्षय कर देने पर आत्मा मुक्त अर्थात् परमात्मा बन जाता है और उसकी मरमात्मदशा शाश्वतिक होती है । उसका कभी. अन्त नहीं . होता।
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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