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मक्ष स्वरुप समय वह उस ग्रंथि को सर्वथा नष्ट कर डालता है और अधिकतर विशुद्धता प्राप्त करता है। इसका नाम है-अनिवृत्ति-करण।
इन तीन परिणामों द्वारा राग-द्वेष की गांठ का नाश होते ही मिथ्यात्व दर्शन मोहनीय कर्म पर विजय प्राप्त हो जाती हैं । श्रात्मा को अपने शुद्ध स्वरूप का भान हो जाता है। उसकी दृष्टि सम्यक् हा जाती है। उस समय प्रात्मा चौथ गुणस्थान में पहुँच जाता है। चतुर्थ गुणस्थान का स्वरूप भाग बतलाया जायगा ।।
(२) सास्वादन गुणस्थान-सम्यक्त्व से गिर कर मिथ्यात्व की अवस्था में जा पहुँचता है । जो जीव दर्शन मोहनीय कर्म को क्षय करके नहीं वरन् सिर्फ उप शान्त करके-दबा करके चौथे गुणस्थान में पहुँचा था, उसे दर्शनमोहनीय कर्म का फिर उदय हो पाता है और वह चौथे गुणस्थान से पतित होने लगता है । इस कोटि का जीव जच सम्यक्त्व से च्युत हो जाता है परन्तु मिथ्यात्व दशा को प्राप्त नहीं हो पाता, उस समय की उसकी स्थिति सास्वादन गुणस्थान कहलाती है। इस स्थिति में जीव अत्यन्त अल्पकाल तक ही रहता है, फिर वह प्रथम गुणस्थान में जा पहुँचाता है। कहा भी है:
सम्मत्तरयणपव्वयसिहरा दो मिच्छभूमि समभिमुहो। __णालिय सम्मत्तो सो लासराणामो मुणेयव्यो ॥ अर्थात्-सम्यक्त्व रूपी रत्नमय पर्वत के शिखर से च्युत होकर, मिथ्यात्व की भूमि की ओर जीव जब अभिमुख होता है और जब उसका सम्यक्त्व नष्ट हो चुकता है, उस समर की उसकी अवस्था को सास्वादन गुणस्थान कहते हैं।
(३) सम्यक्-मिथ्यादृष्टि गुणस्थान-जिस अवस्था में जीव के परिणाम कुछ अंशों में शुद्ध और कुछ अंशों में अशुद्ध होते हैं, अर्थात् जब सम्यक्त्व और मिथ्यात्व का लम्मिश्रण-सा होता है, वह अवस्था सम्यक्-मिथ्यादृष्टि गुणस्थान कहलाती है। पहले गुणस्थान से भी इस गुणस्थान में जीव धाता है। और चौथे आदि ऊपर के गुणस्थानों से गिरकर भी आ सकता है। इसे मिश्र गुण-- स्थान.भी कहते हैं, क्योंकि इसमें जीव की श्रद्धा मिश्रित-सम्यक्त्व-मिथ्यात्वमय होती है। कहा भी हैः
दहि गुड मिव वा मिस्लं, पुहभावं णेच कारिढुं सक।।
एवं मिस्लयभावो सम्मामिच्छोत्ति गाबो ॥ अर्थात् -दही और गुड़ को मिला देने पर जैसा खट्टा-मीठा स्वाद हो जाता है, और जिसकी खटास. या मिठास अलग-थलग नहीं की जा सकती वह सम्यक्त्व-मिथ्यात्व की मिश्रित अवस्था सम्यक्त्व-मिथ्यात्व गुणस्थान है।
___इस गुणस्थान का खरूप सुगम करने के लिए एक दृष्टान्त प्रचलित है। किसी नगर में एक मुनिराज पधारे । कोई श्रावक मुनिराज को वन्दना करने चला। रास्ते में एक दुकान पर एक सेठजी बैठे थे । श्रावक ने कहा--' सेठजी, नगर के बाहर