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अठारहवां अध्याय
[ ६७५ 1 हाथ जोड़कर श्राचार्य महाराज का कोप शान्त करना चाहिए।
श्राचार्य केवल मधुर भाषण एवं विनम्रता-प्रदर्शन से ही प्रसन्न नहीं होते। उनके कोप का कारण शिष्य का अनुचित आचार होता है। अतएव जब तक पुनः वैसा आचार न करने की प्रतिजा न की जाय तब तक कोप का कारण पूर्ण रूप से दूर नहीं होता। इसलिए शास्त्रकारने यह बताया है कि शिष्य को 'ण पुणत्ति' फिर ऐसा आचरण न करूँगा, यह कहकर श्राचार्य को अश्वासन देना चाहिए।
शाचार्य का कोप शिष्य के पक्ष में अत्यन्त अहितकर होता है । अतएव श्राचार्य की अवहेलना करके उन्हें कुपित करना योग्य नहीं है। प्राचार्य की अवहेलना के संबंध में शास्त्र में लिखा है
सिया हु से पावय तो डहेजा, श्रासीविसो वा कुवियो न अक्खे । सिया विसं हालहलं न मार, न यावि मोक्खो गुरुहीलणाए ॥
अर्थात्-स्पर्श करने पर भी कदाचित् अग्नि न जलावे, कुपित हुआ सर्प भी कदाचित् न जैसे और कदाचित् हलाहल विष से मृत्यु न हो, मगर गुरु की अवहेलना करने से मुक्ति की प्राप्ति कदापि संभव नहीं है । तथा
जो पव्वयं सिरसा भेजुमिच्छे, उत्तं व सीहं पडि वोहाइजा।
जो चा दए सात्ति-अग्गे पहारं, एसोवमाऽऽसायणया गुरुणं ॥ थर्थात्-गुरु की शासातना करना मस्तक मार-कर पर्वत को फोड़ने के समान है, सोते हुए सिंह को जगाने के समान है अथवा शक्ति नामक शस्त्र की तीक्ष्ण धार पर हाथ-पैर का प्रहार करने के समान अनर्थकारक है । अतएव
जस्तंतिए धम्मपाय सिक्ने, तस्संतिए वेणइयं पडंजे ।
सरकारए सिरसा पंजलीओ, कायनिगरा भो मणसा अनिच्छ । अर्थात्-जिससे धर्म शास्त्र साख्ने उसके सामने विनयपूर्ण व्यवहार करना चादिप । मस्तक झुकाकर, हाथ जोड़कर, मन, वचन, काय से उसका सत्कार करना चाहिए।
धर्मशस्त्र के इस विधान से प्राचार्य की भक्ति की महत्ता स्पष्ट हो जाती है। अतएव अपने कल्याण की कामना करने वाले शिष्य को गुरु का समुचित विनय कारना चाहिए और अपने अनुकूल सद्व्यवहार से प्रसन्न रखना चाहिए। ' मूलः-पच्चा णमइ मेहावी, लोए कित्ती से जायइ ।
हवइ किच्चाण सरणं, भूयाणं जगई जहा ॥ १५ ॥ लाया:-ज्ञाश्या नमन मेधाबी, लोके कीर्तिस्तस्य जायते।।
भवति मायानां शरां. भूतानां जगती यथा ॥ १५॥ शब्दार्थः-विनय के सन्यफ स्वरूप को जानकर बुद्धिमान पुरुप को विनयशील होना चाहिए। इससे लोक में उसकी पीति होती है। जैसे प्राणियों का आधार पृथ्वी