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मोक्ष स्वरुप छाया.-अथ पञ्चदशभिः स्थानैः, सुविनीत इत्युच्यते । . . . नोचैर्वृत्तिरचपलः, अभाथी अकुतूहल: ॥६॥
शब्दार्थः-पन्द्रह स्थानों से पुरुष विनीत कहलाता है । वे इस भांति हैं-(१) नम्रता (२) अचपलता (३) निष्कपटता (४) कुतूहलरहितता । (शेष ग्यारह स्थान अगली गाथा प्रो में वर्णित हैं)।
भाष्य-श्रथ का अर्थ है-अनन्तर । अर्थात् अविनीत के लक्षण बतलाने के अन्नतर सुदिनीत का स्वरूप यहां बताया जाता है।
सुविनीत के पन्द्रह लक्षण है। इन पन्द्रह लक्षणों से संपन्न पुरुष सुविनीत कहलाता है। पन्द्रह में से प्रकृत गाथा में चार लक्षण बतलाये हैं। शेष लक्षणों का अग्रिय गाथाओं में निर्देश किया जायगा । चार लक्षण इस प्रकार हैं:
[१] नावृत्ति-नम्रता को कहते हैं । स्वभाव में नम्रता होना अर्थात् जो अपने सगुणों में बड़े हैं-विशिष्ट ज्ञानी, विशिष्ट संचम और विशिष्ट सम्यग्दृष्टि हैं, उन्हें यथा योग्य प्रणाम करना, उनके सामने अवनत रहना आदि ।
[२] अचपलता-गुरुजनों के समक्ष चंचलता प्रदर्शित न करना, उनके भाषण करते समय बीच में न बोलना, जब वे कोई उपदेश दे रहे हों इधर-उधर न ताकना, उनके समक्ष व्यर्थ न चलना-फिरना-टहलना आदि।
१३] निष्कपटता-मायाचार का सेवन न करना।
[४] कुतूहलरहितता-खेल-तमाशा आदि कौतुकवर्द्धक बातों से रहित होना। मूलः-अप्पं च अहिक्खिवई, प्रबंधं च न कुव्वई ।
मेसिनमाणो भया, सुयं लद्धं न मजई ॥१०॥ न य पाव परिक्खेवी, न य मित्तेसु कुप्पई ।
अप्पियस्स वि मित्तस्स, रहे हल्लाण भासई ॥ ११ ॥ कलहडमर वज्जए, बुद्धे अभिजाइए । हिरिमं पडिसंलीणे, सुविणीए ति बुच्चई ॥ १२ ॥ छाया:-अल्पञ्चाधिक्षिपति, प्रवन्धञ्च न करोति ।
मैत्रीयमाणो भजते. श्रुतं लब्ध्वा न माघति ॥ १०॥ . न च पाप परिक्षेपी, न च मित्रेपु कुप्यति ।
अप्रियस्यापि मित्रस्य, रहसि कल्याणं भापते ॥ ११॥ ...कलह उमर वर्जदः, शुद्धोऽभिजातकः।
हीनान प्रतीसलीनः सुविनीत इत्युच्यते ॥ १२ ॥