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________________ C inematom o nalesashainocenbechaudaia । ६६६ । मोक्ष स्वरुप छायाः-यासनगतो न पृच्छत्, नैव शय्यागतः कदापि च । पागम्य उरकुटुकः सन्, पच्छेत् प्राञ्जलिपुटः ॥ ३॥ शब्दार्थः-श्रासन पर बैठे-बैठे गुरुजनों से कभी प्रश्न नहीं करना चाहिए और शय्या पर बैठे-बैठे भी नहीं पूछना चाहिए । गुरुजन के समीप आकर उकडूं शासन से अवंस्थित होकर, हाथ जोड़कर पूछना चाहिए।' भाष्य-विनीत शिष्य के कर्तव्यों के निरूपण का प्रसंग चल रहा है, 'अतएक वही पुनः प्रतिपादन किया गया है। अपने आसन पर बैठे-बैठे या शय्या पर बैठ कर गुरु महाराज ले कोई प्रश्न पूछना-शंका निवारण करना, उचित नहीं है ऐसा करना शिष्टाचार से विपरीत है । अतएव गुरु महारज से जब किसी प्रश्न का समाधान प्राप्त करना हो तो अपने श्रासन या शय्या से उठकर गुरुजी के पास प्राव और नम्रभाव ले उकडू पालन से बैठकर, दोनों हाथ जोड़ कर प्रश्न पूछ। जैले पानी स्वभावतः उच्च स्थान से नीचे स्थान की ओर जाता है, नीचे से ऊपर की ओर नहीं जाता, इसी प्रकार ज्ञान भी उसी को प्राप्त होता है जो अपने गुरु को उच्च मानकर अपने को उनसे नीचा समभाता है जो विनीत शिष्य अभिमान के वश होकर अपने श्रापको उच्च मानता है और गुरु को नीचा समझता है वह शान लाभ नहीं करसकता। श्रतः श्रुत श्रादि के लाभ की अभिलाषा रखने वाले शिष्य को लनता एवं विनीतता धारण करनी चाहिए। मुल:- जं मे बुद्धा सासंति, सीएण फरसेण वा । • मम लाभो ति, पेहाए, पयो तं पडिस्सुणे ॥४॥ ...... छायाः यन्मा बुद्धाणुपासंति, शीर्तन पुरुषेण या। यम ताम इति प्रेय, मध्यस्तत् प्रतिश्रणुयात ॥ ४॥ शब्दार्थः-मुझे ज्ञानीजन शान्त तथा कठोर शब्दों से जो शिक्षा देते हैं, इसमें मेरा ही लाभ है, ऐसा विचार कर जीव मात्र की रक्षा करने में यत्नानान शिष्य उनकी वाढ अंगीकार करे। ... भाष्यः-गुरु जय शिष्यको शिक्षा देते हैं या उलका अनुशासन करते हैं, तब शिष्य को क्या करना चाहिए, यह बात प्रकृत गाथा में स्पष्ट की गई है। : कोमल अथवा कठोर शब्दों से अनुशासन करने पर शिष्य को इस भांति विचार करना चाहिए:-'गुरु महाराज मुझे जो शिक्षा देते हैं उसमें उनका रंच मात्र. भी लाभ या स्वार्थ नहीं है । वे केवल मेरे ही लाभ के लिए मुझे कठोर शब्दों द्वारा या कोमल शब्दों द्वारा शिक्षा देते हैं। मैंने जो अनुचित आचरण किया है उसके लिए अगर वे चेतावनी न देते तो उनकी क्या हानि हो जाती ? हानि तो मेरी ही होती। अतएव उनके अनुशासन का उद्देश्य मेरा हितसाधन ही है। में गुरु देव का अत्यन्त कृता हूं कि उन्होंने भविष्य के लिए मुझे अनुचित आचरण न करने के लिए प्रेरित
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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