________________
*ॐ नमः सिद्धेभ्या*
म. स . . . . . . निन्थ-प्रवचन ॥ अठारहवां अध्याय ।। . ..
*-*eo* * .... मोक्ष स्वरूप
श्री भगवान्-उवाचमूल:-प्राणाणिदेस करे, गुरूणमुववाय कारए ।
इंगियागार संपन्ने, से विणीय त्ति वुच्चई ॥ १ ॥ छाया-अाज्ञानिर्देशकरः, गुरूयामुपपात कारकः ।।
इंगिताकार सम्पन्नः, स दिनीत इत्युच्यते ॥ १ ॥ शब्दार्थ:-जो आज्ञा का पालन करने वाला, गुरुओं के समीप रहने वाला, गुरुजनों के इंगित एवं आकार को समझने में समर्थ होता है वह विनीत कहालाता है। .
भाग्य-पिछले अध्ययन के अन्त में स्वर्ग का वर्णन किया गया है और यह भी निरूपण कर दिया गया है कि शील को पालन करने वाला पुरुष स्वर्ग से च्युत होकर उत्तम मनुष्य होता है। मनुष्य गति का लाभ करके फिर वह कहां जाता है, यह बताने के लिए मोक्ष-स्वरूप नामक अठारहवां अध्ययन कहा जाता है। इससे यह स्वतः फलित हो जाता है कि शीलवान महापुरुष मुक्तिलाम करता है।
अनादि काल से आत्मा, पर द्रव्यों के संयोग के कारण विविध योनियों में निरन्तर भ्रमण कर रहा है। असंख्य वार प्रात्मा ने नरक गति प्राप्त की है, 'असंख्य बार देवगति लाभ किया है, असंज्यात चार मनुष्यभव पाया है। जन्म-मरण का यह चक्र मक्ति प्राप्त होने पर ही मिटता है । मुक्ति श्रात्मा की अन्तिम अवस्था है । अनेक योनियों में भ्रमण करके अन्त में मुक्ति प्राप्त होती है। अतएव यहां अन्त में मुक्ति का स्वरूप वतंलाया गया है।
जैनधर्म विनय मूल धर्म है। 'धम्मस्ल विणको मूलं' अर्थात् धर्म का मूल विनय है, ऐसा शास्त्र में कहा गया है । जैसे मूल के बिना वृक्ष नहीं टिकता, उसी प्रकार विनय के विना धर्म की स्थिति नहीं होती। श्रतएव धर्म की साधना के लिए सर्वप्रथम विनय की अपेक्षा रहती है। धर्म लाधना का चरम और परम फल मोच्च है। इससे यह भली-भांति स्पष्ट है कि मुक्ति की प्राप्ति में विनय अनिवार्य है और उसका स्थान प्रथम है। यही कारण है मुक्ति का स्वरूप प्रतिपादन करने से पहले यहां विनय के सम्बन्ध में वर्णन किया गया है।