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सरहवा अध्याय
'नव लौकान्तिक देव सम्यादीष्ट होते हैं, तीर्थकर भगवान् की दीक्षा के समय उनके वैराज्य की सराहना करने वाले हैं, आसन्त मोक्षगामी, ब्रह्मचारी और ऋपियों के समान होते हैं।
पांचवें स्वर्ग के ऊपर छटा लान्तक स्वर्ग है । इसके पांच प्रतर है, जिसमें . सात सौ योजन के ऊँचे और पच्चीस सौ योजन की नींव वाले ५०००० विमान हैं।
छ स्वर्ग के ऊपर सातवां महाशुक्र देव लोक है । इसके चार प्रतर है, जिसमें ८०० योजन ऊँचे और २४०० योजन की नीव वाले ४०००० विमान हैं।
सातवे देवलोक के ऊपर श्राठवां सहस्सार देव लोक है । सहस्त्रार देव लोक में चार प्रतर हैं, जिसमें ८०० योजन ऊँचे और २४०० योजन की नीच वाले ६.०० विमान हैं।
आठवें देवलोक के ऊपर प्रारंभ के चार देवलोकों के समान घराबरी पर दो-दो देवलोक आरंभ होते हैं । मेरु से दक्षिण दिशा में नववा प्रानत देव लोक और उत्तर दिशामें प्राणत नामक दसवां देवलोक है। इन दोनों में चार-चार प्रतर हैं, जिनमें नौ सौ योजन ऊँचे और २२०० योजन की नींच चाले दोनों के चार सौ चिमान हैं।
इन देवलोकों के ऊपर मेरु से दक्षिण की और ग्यारहवां अरूण देवलोक भार उत्तर दिशा में बारहवां अच्युत देवलोक है जिनमें एक हजार योजन ऊँच और बाईस सौ योजन की नींव वाले दोनों के तीन सौ विमान हैं।
इस प्रकार कल्पोपन्न देवों के बारह भेद हैं । शरचे देवलोक के ऊपर कस्पा. सीत देव रहते हैं। उनका वर्णन पारगे किया जा रहा है। मूलः-कप्पाईया उ जे देवा, दुविहा ते वियाहिया ।
गेविजाणुतरा चेव, गेविजा नव विहा तहिं ॥ २२ ॥ छाया:-कल्पातीतास्तु ये देवा, द्विविधास्ते व्यारन्याताः।
___अवेयको अनुत्तराश्चैव, प्रेयेयका नवविधास्तन्नः ॥ २२ ॥ शब्दार्थः--जो कल्पातीत देव हैं वे दो प्रकार के कहे गये हैं--प्रवेचक देव और अनुत्तर देव । उनमें से मैवेयक देवों के नौ भेद हैं।
__ भाप्यः-कल्पोपपन्न देवों के भेद बताने के पश्चात् यहां कल्पातीत देवों के मूल दो भेद-वेयर देव और अनुत्तर देव-और ग्रेवेयक देवों की भेदसंनया का कथन किया गया है।
यफ विमान नी है, यतः उनमें निवास करने वाले देव भी नी प्रकार के है। इसी प्रकार कल्पातीत देवों के दो भेद भी याश्रय-भेद से किये गये हैं। जो देव नी प्रेवेयकों में रहते हैं ये अवेयकदेव कहलाते हैं और अनुत्तर विमानों में रहने चाले अनुत्तर देव कहलाते हैं।