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सत्तरहवां अध्याय
[ ६५१ ] (२) सामानिक-जो देव इन्द्र के समान आज्ञा नहीं चला सकते, इन्द्र के समान ऐश्वर्य भी जिनका नहीं है, फिर भी जो इन्द्र के समान ही श्रायु, शक्ति, परिवार और उसी के समान भोगोपभोग की सामग्री से युक्त होते हैं, ऐसे राजा के पिता, गुरु श्रादि समान देव सामानिक कहलाते हैं।
(३) त्रायस्त्रिंश-राजा के मंत्री और पुरोहित के समान देव त्रायस्त्रिंश कहलाते हैं। . (४) पारिषद्-राजा के मित्र या सभासदों के समान देव पारिषद कहलाते
(५) श्रात्मरक्षक-जैसे राजा के अंगरक्षक होते हैं, उसी प्रकार इन्द्र के अंग रक्षक देव प्रात्मरक्षक कहलाते हैं । यद्यपि इन्द्र को किसी प्रकार का भय नहीं रहता और उसे दूसरों से रक्षा कराने की आवश्यकता भी नहीं है, फिर भी अंगरक्षक देवों का होना एक प्रकार का इन्द्र का ऐश्वर्य है।
(६) लोकपाल-प्रजा के रक्षक के समान देव लोकपाल हैं।
(७) अनीक-सैनिकों के स्थानीय देव अनीक कहलाते हैं। इन्द्र की सेना पदाति आदि सात प्रकार की है। उसका उल्लेख्न पहले आ चुका है।
(८) प्रकीर्णक-मनुष्यों में प्रजा के समान देवप्रजा को प्रकीर्णक देव कहते
हैं।
(E) आभियोग्य-मनुष्यों में दास के समान देव, जो इन्द्र की सवारी आदि के भी काम आते हैं।
. (१०) किल्विपिक-मनुष्यों में चाण्डालों के समान, पापी देव किल्लिपिक कहलाते हैं।
यह भेद प्रत्येक निकाय में ही होते हैं। मगर व्यन्तर एवं ज्योतिक देवों में त्रायलिंग तथा लोकपाल के सिवाय सिर्फ आठ ही विकल्प हैं । वैमानिकों और भवनवासियों में दस-दस भेद पाये जाते हैं।
शंका-जय चारों निकायों में इन्द्र श्रादि विकल्प हैं तय सभी निकायों में फरपोत्पन्न तथा कल्यातीत भेद करना च.हिए । यहां केवल वैमानिकों में दो विकल्प क्यों बताये गये हैं ?
समाधान-वैमानिकों के अतिरिक्त शेष तीन निकायों में कल्पोत्पन्न देव ही होते हैं, कस्पातीत नहीं, अतः उनमें दो भेद नर्दी हैं। चैमानिक देवों में दो प्रकार के देय हैं। इस कारण वैमानिकों के दो भेद बतलाये गये हैं।
___ 'कप्पोवगा' और 'कप्पाईया' पदों का बहुवचनान्त प्रयोग उनके अनेक प्रयान्तर भेर्दो को सूचित करता है । इन भेदों का निरूपण शारत्रकार स्वयमेर भागे फरते हैं।