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________________ AsA PRIGHAARMA-SMC -Clanditidalnirhoaam श्वत रक्त अश्च सत्रहवी श्रध्याय देवों की संख्या में कुछ अन्तर है । वह इस प्रकार है-अभ्यन्तर परिषद में पचास हजार देव, मध्य परिषद में साठ हजार देव और वाह्य परिषद में सत्तर हजार देव हैं। अभ्यातर परिषद की देवियां दो लौ पच्चील, मध्य परिषद् की दो सौ और चाह्य परिषद की एक सौ पचत्तर देवियां है। विद्युतकुमारों से लगाकर स्तनित कुमारों तक के भवनों की संख्या दक्षिण में चालीस-चालीस लाख और उत्तर में छत्तीस-छत्तीस लाख है।। भवन पति देवों की अंलग-अलग जाति के शरीर का वर्णन प्रादि भिन्न भिन्न प्रकार का होता है। यथा- . जाति का नाम शरीर का वर्स बस्त्र का वर्ण मुकुट का चिह्न (१) असुर कुमार कृष्ण रक्त चूड़ामाण (२) नाग कुमार हरित नाग-फणि (३) सुवर्ण कुमार सुनहरा श्वेत गरुड़ (४: विधुत्कुमार हरित वज ५, अग्निकुमार रक्त हरित फलश (६) द्वीपकुमार रक्त हरित सिंह (७) उदाधिकुमार रक्त हरित (८) दिशाकुमार श्वेत इस्ती (६) वायुकुमार हरित হাবী मगर (१०) स्तनितकुमार काञ्चन श्वेत भवनवासी देवों की स्थिति का वर्णन आगे किया जायगा। मूल:- पिसायभूयजक्खा य, रक्खसा किन्नरा किं पुरिसा। महोरगा य गंधवा, अट्टविहा वाणमन्तरा ॥१७॥ छाया:-पिशाचा भूता यत्ताश्व, रावसा:किमराक पुरयाः । महोरगाश्च गन्धर्वाः, अष्टविधा न्यन्तराः ॥ १७ ॥ शब्दार्थः-बाण व्यन्तर देव आठ प्रकार के हैं--(१) पिशाच, (२) भूत, (३) यक्ष, (४) राक्षस (५.) किन्नर (६.) किं पुरुष (७) मद्दोरग और (८) गंधर्व । भाग्य-प्रकृत गाथा में कम प्राप्त व्यन्तर देवों की जातियों के नामों का उल्लेन किया गया है। रतप्रभा पृथ्वी को ऊपर एक हजार योजन का पृथ्वीपिंड है। उसके सौ-सी योजन ऊपरी और नाच के भाग को छोड़कर बीच में आठ सौ योजन में व्यन्तर देव रहते हैं। ऊपर के छूटे हुए लौ योजन के ऊपरी और निचले भाग के दस-दस योजन 'छोरकर बीच में भी भानपखी, पानपत्री, आदि व्यन्तर रहते हैं। दोनों स्थानों पर
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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