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________________ 1 ६३८ ] नरक - स्वर्ग - निरूपण वह पाता है । इस कथन से स्पष्ट है कि नारकी जीव अपने ही कर्मों का फल भोगते हैं । यद्यपि परमधार्मिक असुर उन्हें कष्ट पहुंचाते हैं, किन्तु वे उनके स्वकीय कर्मफल भोग में निमित्त मात्र हैं। उनके दुःखों का असली कारण तो वे स्वयमेव हैं । इसी 'आशय को स्पष्ट करने के लिए शास्त्रकार ने गाथा में 'दुक्कडेणं' पद दिया है । मूल:- प्रच्छिनिमिलयमेतं, नत्थि सुहं दुक्खमेव प्रणुबद्धं । नरए नेरइयाणं, होनिसं पच्चमाणायं ॥ ६ ॥ छाया: - प्रतिनिमीलनमात्रम्, नास्ति सुखं दुःखमेवानुबद्धम् । नरके नैरयिकाणाम्, अहर्निशं पच्यमानानाम् ॥ ६ ॥ शव्दार्थ:-- --रात-1 - दिन पचते हुए नारकी जीवों को नरक में एक पलभर के लिए भी सुख नहीं मिलता। उन्हें निरन्तर दुःख ही दुःख भोगना पड़ता है । भाष्यः - गाथा का भाव स्पष्ट है । श्रांख टिमटिमाने में जितना अल्प समय लगता है, उतने समय के लिए भी नारकी जीवों को कभी सुख प्राप्त नहीं होता । वेचारे नारकी निरन्तर नरक में पचते रहते हैं । उन्हें दुःख ही दुःख भोगना पड़ता है । यद्यपि तीर्थंकर भगवान् के जन्म के समय एक क्षण के लिए नारकी जीव परस्पर में लड़ना, मारना पीटना आदि बन्द करते हैं, तथापि उसे भी सुख नहीं कहा जा सकता, उस समय भी उन्हें क्षेत्रजा वेदनाएँ भोगनी पड़ती हैं । अतएव नरक में किसी भी समय सुख का लेशमात्र भी प्राप्त नहीं होता । मूलः - इ सीयं ह उरहं, इ तिराहा इक्खुहा | अइभयं च नरए नेरइयाणं, दुक्खसयाई विस्सामं १० छाया:- प्रति शीतम् श्रत्यौष्ण्यम्, श्रुति तृपाऽति चुधा । प्रति भयं च नरके नैरयि कारणम्, दुःखशतान्यविश्रामम् ॥ १० ॥ शब्दार्थः--नरक में नारकी जीवों को अति शीत, अतिताप, अत्यन्त तृषा, क्षुधा और अत्यन्त भय-- इस प्रकार सैकड़ों दुःख निरन्तर भोगने पड़ते हैं । -- भाष्यः - श्रासुरी वेदना का दिग्दर्शन कराने के पश्चात् यहां क्षेत्रजा वेदना का चर्णन किया गया है । नरक रूप क्षेत्र के प्रभाव से होने वाली वेदना क्षेत्रजा वेदना कहलाती है । अत्यन्त नरक श्रत्यन्त शीत का कष्ट भोगना पड़ता है | और तीव्रतर गर्मी भी सहनी पड़ती है। नरक की गर्मी-सर्दी के विषय में कहा गया है: मेरु समान लोड गल जाय, ऐसी शीत उष्णता थाय ॥ अर्थात् वहां इतनी अधिक सर्दी और गर्मी पड़ती है कि मेरु पर्वत के बराबर
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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