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लत्सरहा अध्याय मूलः-ते तिप्पमाणा तलसंपुडं व,
___ राइंदियं तत्थ थणंति बाला। गलंति ते सोणिपूयमंसं,
पजोड्या खारपइद्धियंगा ॥६॥ छाया:-ते तिप्पमानास्तालसम्पुटा इव, रात्रिदिवं तन्त्र स्तनन्ति बालाः।
- गलन्ति ते शोणितपूतमाम, प्रद्योर्तिताः क्षारप्रदिग्धाङ्गाः ॥ ६ ॥ शब्दार्थः-वे नारकी जीव अपने अंगों से रुधिर टपकाते हुए सूखे ताल पत्र के समान शब्द करते रहते हैं । परमाधार्मिकों के द्वारा आग में जला दिये जाते हैं और फिर उनके अंगों पर क्षार लगा दिया जाता है । इस कारण रात-दिन उनके शरीर से रक्त, पीव और मांस भरता रहता है।
___ भाष्या-परमाधार्मिक असुरों द्वारा दी जाने वाली यातनाओंका कुछ दिग्दर्शन ऊपर कराया गया है। यहां पर भी यही बात बतलाई गई है।
घरमाधार्मिक नारकी जीवों के अंग-उपांग काटते हैं और आग से जला देते हैं इतने से ही उन्हें संतोष नहीं होता, ने उस जले पर नमक आदि क्षार लगा देते हैं। नारकी जीवों के घावों से रुधिर टपकता रहता है, पीव झरता है और मांस के लोथ गिरते रहते हैं।
. ऐसी वेदना उन्हें कभी-कभी ही होती हो तो बात नहीं है । रात-दिन उनकी ऐसी ही दशा बनी रहती है। इस प्रकार की विषम वेदना से व्याकुल होकर नारकी जीव ऐसे रोते हैं जैसे हवा ले प्रेरित ताल-पत्र अाक्रन्दन करते हों।
जिन्होंने क्रूरतापूर्वक अन्य जीवों को वेदना पहुंचाई थी ये नारकी भव में ; उसस से लहस्रगुनी वेदना के क्षेत्र बंधते हैं। यह इस कथन से स्पष्ट है। मूलः-रुहिरे पुणो वच्चससुस्सि अंगे.
भिन्नुत्तमंगे परिवत्तयंता । पति णं गैरइए फुरते,
सजीवमच्छेव अयोकल्ले ॥ ७ ॥ छायाः-रुधिरे पुनः वर्चः समुचिताझाान् , भिन्नोत्तमामान परिवर्तयन्तः ।
पचन्ति नरविकान् स्फुरतः, सजीवमरस्यानिवायसवल्याम् ॥ ७ ॥ शव्दार्थ:-मल के द्वारा जिनका शरीर सूज गया है, जिनका सिर चूर-चूर कर दिया गया है और जो पीड़ा के कारण छटपटा रहे हैं, ऐसे नारकी जीवों को परमाधार्मिक असुर जीवित मछली के समान लोहे की कढ़ाई में पकाते हैं।