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आवश्यक कृत्य विष का भक्षण करते हैं, अग्नि में प्रवेश करते हैं, जल में प्रवेश करते हैं, या इसी प्रकार के किसी अनाचरणीय उपाय का प्राचरण करते हैं, वे को ले छटकारा तो पाते नहीं, वरन् प्रगाढ नवीन कर्मों का बंध करके दीर्घ काल पर्यन्त जन्म-मरण के पंजे में फंसे रहते हैं।
पति के परलोक नमन करने पर पति का अग्नि प्रवेश भी आत्मघात ही है। स्त्री का सच्चा सतीत्व शील रक्षा एवं ब्रह्मचर्य के पालन में है, न कि श्रापघात में। , श्रतएव श्रात्मघात किली भी अवस्था में विधेय नहीं है। श्रात्मघात घोर कायरता कह कल है या घोरतर अज्ञान का फल है। इसलिए बुद्धिमान पुरुष अात्मघात को अधर्म समझकर उसमें कदापि प्रवृत्त नहीं होते। मूलः-अह पंचहिं ठाणेहि, जेहिं सिक्खा न लब्भई ।
थंभा कोहा पमाएणं, रोगणालस्सएण य ॥८॥.. छायाः-अथ पञ्चभिः स्थानः, यैः शिक्षा न लभ्यते । .
___ स्तम्भात क्रोधात् प्रमादेन, रोगणालस्येन २ ॥८॥ शब्दार्थ:-जिन पांच कारणों से शिक्षा प्राप्त नहीं होती, वे यह है-(१) अभिमान से (२) क्रोध से (३) प्रमाद से (४) रोग से और (५) आलस्य से।
भाष्यः-श्रात्मा में विद्यमान शक्ति का जिससे विकास होता है वह शिक्षा है ।। शिक्षा-प्राप्ति के लिए नम्रता श्रादि गुणों की आवश्यकता होती है। जो शिष्य अभिमानी होता है और अभिमान के कारण यह सोचता है कि इसमें क्या रक्खा है ? गुरुजी जो सिखाते हैं वह सब तो मैं स्वयं जानता हूँ। और इस प्रकार सोचकर विनय के साथ गुरुप्रदत्त पाठ को अंगीकार नहीं करता वह शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकता। अभिमान करने से गुरु का शिष्य पर आन्तरिक स्नेह नहीं होता और विना स्नेह के भलिभांति शिक्षा का प्रदान नहीं हो सकता है। श्रतएव शिक्षा के अर्थी शिष्य को अभियान को त्याग करना चाहिए।
. जो शिष्य क्रोधी होता है। गुरुजी द्वारा डांटने-डपटने पर श्राग बबूला हो जाता है, वह भी अपने गुरु का हृदय नहीं जीत पाता और शिक्षा से वंचित रहता है।
. क्रोध और अभिमान की मात्रा कदाचित् अधिक न हो और प्रमाद का प्राधिस्य हो तथा प्रमाद के कारण पठित विषय का यारम्बार स्मरण या पारायण न करे तो पिछला पाठ विस्मृत हो जाता है । भागे-भागे पढ़ता जाय और पीछे-पीछे का भृतता जाए तो उसका परिणाम कुछ भी नहीं निकलता । अतः शिक्षार्थी को प्रमान का परित्याग कर पिछले-अगले पाठ का बार-बार चिन्तन मनन करना चाहिए। ऐसा किये विना शिक्षा की प्राप्ति नहीं होती । पिछले पाठ को छोड़ बैठना ही प्रमाद न हैं। है, वरन धागे का पाठ पढ़ने में निरुत्साह होना, श्राज नह तो फिर कभी पद लगे, इस प्रकार का भाव होना भी प्रमाद के ही अन्तर्गत है।
पवूला हो
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