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________________ [ ६०२ ] श्रावश्यक कृत्य यही बात क्रोध के विषय में समझनी चाहिए । अल्प पुरुष कोध करता है । उसे क्रोधाविष्ट देख कर अगर ज्ञानी क्रोध करने लगे तो अज्ञानी और ज्ञानी में क्या अन्तर रह जायगा ? उस समय दोनों एक ही कोटि में सम्मिलित हो जाएंगे । इसी - लिए शास्त्रकार ने कहा है कि श्राक्रोश करने वाले पर क्रोध करने वाला भिक्षु बाल जीव के सदृश ही बन जाता है । अतएव ज्ञानी पुरुष क्रोध न करे । किन्तु क्रोध के कारण उपस्थित होने पर क्रोध से होने वाली हानियों का विचार करके शान्तिधारण करे । मूलः - समणं संजयं दंतं, हणेजा कोवि कत्थइ । नत्थि जीवस्स नासो ति, एवं पेहिज्ज संजए ॥ ५ ॥ छायाः - श्रमणं संयतं दान्तं हन्यात् कोऽपि कुत्रचित् । नास्ति जीवस्य नाश इति, एवं प्रेक्षेत संयतः ॥ ५ ॥ शब्दार्थ:- कोई पुरुष संयमनिष्ठ, इन्द्रिय विजेता और तपस्वी को ताड़ना करे तो संयमी पुरुष ऐसा विचार करे कि - 'जीव का कदापि नाश नहीं हो सकता ।' भाष्यः-क्रोध का कारण उपस्थित होने पर ज्ञांनी पुरुष को किस प्रकार उसे शान्त करना चाहिए, यहां यह बतलाया गया है । अगर कोई अज्ञानी पुरुष षट्काय के जीवों की रक्षा करने वाले संयमी, इन्द्रियों को वशवर्ती चना लेने वाले दान्त और नाना प्रकार की तपस्या करने वाले श्रमण को ताड़ना करे, तो उस समय साधु को विचार करना चाहिए कि - यह श्रज्ञानी जीव, क्रोध रूपी पिशाच के वश होकर जो ताड़ना तर्जना कर रहा है सो केवल शरीर को ही कर रहा है । शरीर पौगलिक है, मैं सच्चिदानन्दमय चेतन हूँ । यह चेतन को कुछ भी क्षति नहीं पहुंचा रहा है और न पहुंचा ही सकता है । अगर यह बहुत करेगा श्रात्मा को शरीर से विलग कर देगा और इससे मेरी क्या हानि हो सकती है ? अन्ततः एक दिन तो दोनों का छूटना ही है । श्रायुकर्म की समाप्ति होने पर आत्मा शरीर में नहीं रह सकता सो अगर यह पुरुष मुझे शरीर से विलग भी करता है तो नवीन या अनहोनी बात क्या है ? कोई कितना ही क्यों न करे, श्रात्मा का नाश नहीं होलकता । श्रात्मा श्रजर श्रमर-श्रविनाशी तत्व है । अनादि-अनन्त से समन्वित आत्मा को न कोई मारसकता है, न वह मर सकता है । जब श्रात्मा मर नहीं सकता और शरीर को क्षति से मेरी कुछ भी क्षति गहीं होती तो मैं क्रोध क्यों करूं । शरीर को क्षति पहुंचाने वाले पर क्रोध करके मैं अपने आत्मा को क्षति पहुंचाऊंगा । इस प्रकार जो अनिष्ट दूसरे ने नहीं किया वह मैं अपने आप कर बैठूंगा में अपने अधिक अनिष्ट का कारण बनूंगा । शरीर को क्षति पहुंचने पर भी मुझे किसी प्रकार की क्षति नहीं पहुंच सकती, क्योंकि मैं शरीर-रूप नहीं हूं । शरीर भिन्न है,
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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