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- आवश्यक कृत्य झगड़ा युद्ध कहलाता है । मार्ग में अगर कलह या युद्ध हो रहा हो तो उससे दूर ही रहना चाहिए । कलह या युद्ध को कौतूहलवश देखने से अन्तःकरण में राग-द्वेष की उत्पत्ति होती है और कदाचित् न्यायालय में साक्षी के रूप में उपस्थित होना पढ़ता है । अतएव इन लब का त्याग कर के अपने प्रयोजन के लिए हो जाना चाहिए। मूल: एगया अचेलए होइ, सचेले प्रावि एगया।
एग्रं धम्माहियं णचा, पाणी पो परिदेवए ॥३॥ चाया:-एकदाऽचलको भवति, सचेलो वाऽप्येकदा।
एतं धर्म हितं झाल्वा, ज्ञानी नो परिदेवेत ॥ ३ ॥ शब्दार्थ:--मुनि कदाचित् वनरहित हो अथवा कभी वस्त्रसहित हो, उस समय समभाव रखना चाहिए। इस धर्म को हितकारक समझकर ज्ञानी खेद न करे।
भाष्य:--यहां मुनि को, जिस किसी भी अवस्था में उसे रहना पड़े समझाकघूर्वक ही रहना चाहिए, यह विधान किया गया है।
.. चेल का अर्थ है-वस्त्र । अचेलक अर्थात् वस्त्ररहित और सचेलक अर्थात् बासहित । कभी मुनि को वस्त्रहीन रहना पड़े और कभी वस्त्रयुक्त रहना पड़े तो दोनों शावस्थाओं में उसे लास्यभाव धारण करके खेद नहीं करना चाहिए । इस कथन से अन्य अवस्थाओं में भी समभाव रखने का विधान लमझना चाहिए।
जीवन के दिन सदा समान नहीं बीतते । कभी अनुकूल परिस्थिति उत्पन्न होती है तो कभी प्रतिकूल । कभी सुख की सामग्री का संयोग होता है, कभी दुःख की सामग्री प्राप्त होती है । कालिदास ने कहा है
- . नीचैर्गच्छत्युपरि च दशा, चक्रनेमि क्रमेण । अर्थात् अवस्थाएँ पहिए की नेमि के समान ऊँची नीची होती रहती हैं।
इन विभिन्न परिस्थितियों में अगर विषमभाव का लेवन किया जाय तो श्रात्मा में मलीनता बढ़ती है। जो पुरुष सुनमें फूला नहीं समाता और दुःख में विकल हो जाता है वह राग-द्वेष के अधीन होकर सुख का अंतुभव नहीं कर सकता । वास्तविक मुख लमभावी को प्राप्त होता है। सम्पत्ति-विपत्ति में, संयोग-वियोग में और सुख-दुःख में जो पुरुष समान रहता है, उसे जगत् की कोई भी शक्ति दुःखी नहीं बना सकती। इस प्रकार समभाव ही सुस्त्र की कुंजी है।
समभाव में ही सच्चा धर्म है। जहां विषमभाव होता है, राग-द्वेष की धमाचौकड़ी मची रहती है वहां धर्म की स्थिति नहीं होती। ऐसा जान कर सम्यग्ज्ञानी पुरुष किसी भी अवस्था में खिन्न नहीं होते,और कर्मोदय के कारण जिस अवस्था में श्राते हैं उसी अवस्था में सन्तोष मान लेते हैं।