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________________ मनोनिग्रह १३] परिहारविशुद्धि चारित्र विनय-जिस चारित्र की परिहार तप-विशेष . ले कर्म-निर्जरा की जाती है वह परिहार विशुद्धि चारित्र है। यह चारिन तीर्थकर भगवान् के समीप या तीर्थकर भगवान् के लमीप रह कर जिसने यह चारित्र अंगीकार किया हो उसके समीप ग्रहण किया जाता है। नौ साधुओं में से चार तप करते है, उन्हें पारिवारिक कहते हैं। चार साधु उनकी सेवा करते हैं वे अनुपारिहारिक कहलाते हैं और एक साधु गुरु रूप में रहता है, जिसके समीप पारिहारिक और ननुपारिवारिक साधु पालोचना, प्रत्याख्यान आदि करते हैं। पारिवारिक लाधु श्रीष्म ऋतु में जघन्य एक उपचाल मध्यम देला (दो उपवास) और उत्कृष्ट तेला (तीन) उपवास करते हैं । शिशिर ऋतु में जघन्य वेला मध्यम तेला और उत्कृष्ट चौला (चार उपशास) करते हैं। चौमासे के काल में अल्प तेला, मध्यम चौला और उत्कृष्ट पंचौला! पांच ] उपवास करते हैं। शेष आनुपारिहारिक एवं गुरु पद स्थापित मुनि प्रायः नित्य आहार करते हैं। पर सदा प्रायविल ही करते है। इस प्रकार पारिहारिक साधु छह माल पर्यन्त तपस्या करते हैं। छह मास के पश्चात् पारिवारिक मुनि 'अनुपारिवारिक-सेवा करने वाले हो जाते हैं और अनुयारिहारिक, पारिहारिक बन जाते हैं । यह क्रम भी छह मास तक चलता रहता है। इल प्रकार जब आठ मुनियों की तपस्या हो जाती है तब उनमें से एक गरु पर पर स्थापित किया जाता है और सात उसकी वैयाकृत्य (लेवा) करते हैं। पहले जो मनि गुरु पद पर स्थित था वह तपस्या करना प्रारंभ करता है। उसकी तपस्या भी पूर्ववत् छह मास तक चालू रहती है । इस प्रकार अठारह मास में परिहार विशदि तप का कल्प पूर्ण हो जाता है। . पूर्ण हो जाने पर अगर वह सुनि चाहे तो फिर उस तपस्या को श्रारंभ कर सकते हैं, या जिनकल्प धारण करके अपने गच्छ में पुनः संसिमलित हो सकते हैं। इस प्रकार परिहार विशुद्धि चारित्र वालों का यथायोग्य विनय करना परिहार विशुद्धि चारित्र विनय कहलाता है। १) सक्षम सम्पराय चारित्र विनय-सम्पराय का अर्थ है कपाय । जिस सारित में स्थल कपाय का अभाव हो जाता है और सिर्फ सूक्ष्म सम्पराय श्राव लोका अंश मात्र ही शेष रहता है वह सूक्ष्म सम्पराय चारित्र कहलाता है इस क्षारिन से युक्त मुनिराज का विनय करना सूक्ष्म सम्पराय चारित्र का विनय (५) यथाख्यात चारित्र मिनय-कपाय न रहने पर अतिचार रहित जो विशिय चारित्री हैं वह यथाख्यात चारित्र कहा गया है । इस चारित्र से युक्त महापुरुषों का विनय फरना यथाख्यात चारित्र बिनय है। (३) वैयावृत्यतप-वैयावृत्य का अर्थ सेवा है। लेवनीय के भेद से इस तप के दल भेद है। यथा-(१) श्राचार्य अर्थात् संघ के प्रधान-शासक मुनि की सेवा करना (२) उपाध्याय की सेवा करना (३) शैन अर्थात् प्लानाभ्यास करने वाले
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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