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________________ n adiantaraanindiandsatindinvincedoni aaadalutatio पन्द्रहवां अध्याय तपों का स्वरूप इस प्रकार समझना चाहिए। (१) प्रायाश्चत्त-प्रमाद के कारस लगे हुए दोषों का निवार्य करना अथवा पाप रूप पोय का उच्छेदन करना प्रायश्चित्त है । मायाश्चत तप दल प्रकार का है। वह इस प्रकार है (१) भालोचना-अपने लिए अथवा प्राचार्य, उपाध्याय, स्थविर, तपस्वी, या बीमार मुनि के लिए आहार लेने या अन्य किसी कार्य के लिए उपाश्रय से बाहर जाने और पाने के बीच जो चारित्र-व्यतिकम हुआ हो, वह सब अपने गुरु के या अपने से बड़े मुनि के समक्ष स्पष्ट रूप से-न्यूनाधिक न करते हुए कह देना आलोचना है। (२) प्रतिझमरण-आहार में, विहार में, प्रतिलखना में, हिलने-चालने में, या इसी प्रकार की किसी अन्य क्रिया में जो महान दोष लग गया हो उसके लिए पश्चा. ताप करना प्रतिक्रमरण तफ है। (३) तदुभय-पूर्वोक्त क्रियाओं में जान बूझ कर जो दोष लगा हो उसे गुरु के समर्माए प्रकट करके 'मिच्छामिदुक्कएं' अर्थात् मेरा पाप निष्फल हो, इस प्रकार की भावना करना तदुमय तप है। (४) विवेक-अशुद्ध, अकल्पनीय तथा तीन प्रहर तक रहा हुअा अाहार श्रादि परिष्ठापन कर देना विवेक प्रायश्चित्त है। (५) कायोत्सर्ग-कायोत्सर्ग करना, और उसके द्वारा दुःस्वप्नजन्य पाप का निवारण करना कायोत्सर्ग या व्युत्सर्ग है। (६) तप-पृथ्वीकाय, बनस्पतिकाय आदि लचिव के संघर्श से उत्पन हुए पाप को उपवास आदि द्वारा निवारण करना तप है। (७) छेद-अपवाद विधि का सेवन करने और विशेष कारण उपस्थित होने पर जान बूझ कर दोष लगाने के कारण पाप का निराकरण करने के लिए, दोहापर्याय में किचित् न्यूनता करना छद प्रायश्चित्त है। (८) मूल प्रायश्चित्त-जान-बूझ कर हिंसा करने पर, अलत्य भाषण फरने पर, चोरी कर ले, मैथून सेवन करने या धातुओं की वस्तुएँ अपने पास रखने पर, अथवा रानि भोजन करने पर पूर्व दीक्षा को संग करके नवीन दीक्षा देना मूल प्रायश्चित्त है। (६) अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त -फरता के वश होकर अपने या दूसरे के शरीर पर लाटीका प्रहार करने, डूंना मारने प्रादि कुत्सित क्रियाओं के कारण सम्प्रदाय से पृथक करके ऐसा दुष्कर तप कराना जिससे वह बैठे से उठ भी न सके और फिर नवीन दीक्षा देना अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त है। (१०) पाराञ्चितक प्रायक्षित-शास्त्र के चादेश की अवहा करना, श्रागम विरुद्ध भापण करना, साध्वी का व्रत भंग करना शादि पापकर्म करने पर कम से कम
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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