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पन्द्रहवां अध्याय
छाया:-अनशनमूनोदरिका भिक्षाचर्या च रसपरित्यागः। .
___ कायक्लेश: संलीनता च, बाह्यं तपो भवति ॥ १२ ॥ शब्दार्थ:-अनशन, ऊनोदरी, भिक्षाचर्या, रसपरित्याग,कायक्लेश और संलीनता, यह छह वाह्य तप हैं।
भाष्यः--पूर्वगाथा में सामान्य रूप से विभाग बतला कर यहां बाह्य तप के नाम बतलाये गये हैं। वाह्य तप के छह भेद इस प्रकार हैं। (१) अनशन (२) ऊनो. दरी ( ३) भिक्षाचर्या (४) रस परित्याग (५) कायक्लेश और (६) खलीनता। .. अनशन आदि तपों का स्वरूप इस प्रकार है:. - (१) अनशन-संयम की विशेष सिद्धि के लिए, रागभाव का नाश करने के. लिए, कर्मों की निर्जरा के लिए, ध्यान की साधनाओं के लिए तथा श्रागम की प्राप्ति के लिए प्राशन, पान, खाद्य और स्वाद्य- इन चारों प्रकार के आहार का त्याग करना अनशन तप कहलाता है।
अनशन तप के दो भेद हैं--(१) इत्वरिक तप और (.२) यावत्कार्थक अनशन तप । अमुक काल की मर्यादा के साथ कियाजाने वाला अनशन इत्वरिक अनशन कहलाता है। काल की मर्यादा न करना जीवन पर्यन्त के लिए किया जाने वाला अनशन यावत्कथित अनशन कहलाता है।
इत्वरिक अनशन तप के भी छह भेद हैं--(१) श्रेखीतप (२) प्रतरतए (३) घनतप (४) वर्गतप (५) वर्गावर्गतप और प्रकीर्णतप ।
(क) श्रेणी तप--चतुर्थ भक्त (उपवास), षष्ठ भक्त (दो उपवास--बेला), अष्ट भक्त (तीन उपवास--तेला ), आदि के क्रम से बढ़ते-बढ़ते पक्षोपवास, मासोपवास, द्विमासोपवास, भादि करते-षट्मासोपवास तक येथा शक्ति करना, यह श्रेणी तप कहलाता है।
(ज) प्रतरतप-सोलह खानों का चौकोर यन्त्र बनाया जाय और उसके प्रत्येक स्त्राने में अंक स्थापित किये जाएँ । चाहे तरफ से दाहिनी तरफ और ऊपर से नीचे के चार खानों में क्रमशः एक, दो, तीन और चार का अंक स्थापित करना चाहिए । इन अंकों के क्रम से, जहां जितना अंक हो उतने ही उपवास करना प्रतर तप है। यन्त्र का स्वरूप इस प्रकार है:
प्रतर तप