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मनोनिग्रह है तो नपुंसक लिंग का प्रयोग न करके स्त्रीलिंग का प्रयोग क्यों किया गया है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि संसार में सब से अधिक प्रवल आकर्पण पुरुष के लिए । 'स्त्री' है उससे चित्तवृत्ति का हटाना बहुत कठिन है। जो योगी स्त्री के आकर्षण से परे हो जाते हैं, उन्हें अन्य पदार्थ अपनी योर शाकृष्ट नहीं कर सकते । कहा भी है
इत्थीनी जे ण सेवंति, श्राइमोक्ना हु ते जणा। ते जणा बंधणुम्मुक्का, नायंकरोति जीवियं ॥
-सूयगडांग, १५-६ अर्थात् जो पुरुष, स्त्री का सेवन नहीं करते हैं वे श्रादि-मोक्ष हैं-सब से पहले मुक्ति प्राप्त करते हैं। ऐसे पुरुप बंधन से मुक्त हैं और असंयम रूप जीवन की आकांक्षा से रहित हैं।
इस प्रकार स्त्री सेवन के त्याग की महिमा जानकर साधु को नियों के परिचय से दूर ही रहना चाहिए । शास्त्रकार कहते है- .
नो तासु चक्खु संधेजा, नो वि य साहसं समभिजाणे । __णो सहियं पि विहरेजा, एवमप्पा सुरक्खिओ होई ॥
अर्थात्-साधु स्त्रियों की और अपनी दृष्टि न लगावे और न कभी उनके साथ कुकार्य करने का साहस ही करे । साधु को त्रियों के साथ विहार भी नहीं करना चाहिए । इस प्रकार ग्यवहार करने से साधु के आत्मा की रक्षा होती है। ... .. उल्लिखित प्रकार से साधु अपने उत्तम संयम की रक्षा में सदा दत्तचित्त रहे। कदाचित्.मन. कभी संयम की सीमा का इल्लंघन करे तो पूर्वोक्त प्रकार से उसे पुन: संयम में स्थापित करे । इसके लिए असंयम से होने वाली दुर्गति का भी विचार करना चाहिए, जिससे चित्त में स्थिरता पा जाये । यधा....अधि इत्यपाय छेदाप, अदुवा बद्धमंस उक्कं ते ।
अवि तेयसाभितावणाणि, तच्छियवार सिंचणाई च ॥ अर्थात-जो लोग परस्सी सेवन करते हैं उनके हाथ-पैर काट लिये जाते हैं, अथवा उनका चमड़ा और और मांस काट लिया जाता हैं, वे अनि के द्वारा तपाये जाने हैं और उनके शरीर को छील कर उसपर नमक प्रादि क्षार छिट्का जाता है।
इस प्रकार के अनर्थ तो वर्तमान भर में दी परस्त्री-संसर्ग से होते हैं. परन्त परलोक में इनसे भी अधिक भयंकर और प्रगाढ़ दुःन का पात्र बनना पड़ता है।
इत्यादि विचार करके अस्वस्थ और असंयत मन को स्वस्थ बनाना चाहिए । जो महापुरुष सपने मन की गति का अपमान भाव से निरीक्षण करते रहते हैं, घही शीम मन को वश में कर पाते हैं। अतएव मानसिक व्यापार का सावधानी के साथ निरीक्षण करते हुए उसे सन्मार्ग की ओर ले जाना ही मुमुच पुरुषों के लिए
श्रेयस्कर दे।