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। मनोनिग्रह अपने घोर पापों के लिए पश्चात्ताप नहीं करते।
रौद्रध्यानी जीव अत्यन्त कठोर अन्तःकरण वाला होता है। वह दूसरे को दुःरू पहुंचाकर सुख का अनुभव करता है। दूसर पर विपत्ति श्रा पड़ती है तो उसे प्रसनता होती है। हिला श्रादि पापों का सेवन करने में उसे श्रानन्दानुभव होता है। वह न इस लोक से डरता है, न परलोक की परवाह करता है। उसके चित्त में दया. पर. दुःखकातरता आदि सवृत्तियां नाम मात्र को भी नहीं होती । वह पाप करन में धृष्ट होता है।
रौद्रध्यान अविरत जीवों को होता हैं। देशविरति को धनादि के संरक्षण अादि के निमित्त ले कभी-कभी चौद्र ध्यान हो सकता हो पर वह इतना तीन नहीं होता जो नरक आदि दुर्गति का कारण हो सके।
(३) धर्मध्यान-सुत्रार्थ की साधना करना, पंच महावत धारण करना, बन्ध और मोक्ष एवं संसारी जीवों की गति-श्रागति का विचार करना, इन्द्रिय-विषयों से निवृत्त होने की भावना होना, हृदय में दयालुता दोना, तथा इन सब प्रशस्त कार्यों में मन की एकाग्रता होना, धर्मध्यान है।
धर्मध्यान भी चार प्रकार का है-(१) आकाविचय (२) अपाकविचय (३) विपाकविचय और ( ४ ) संस्थानविचय ।
(फ साझाविचय-संसारी जीवों को संसार के महान भयंकर जन्म-जरामाण आदि की यातनाओं से छुड़ाने वाली, परम मंगलमयी, सद्भूत अर्थों को प्रकाशित करने वाली, निर्दोष, नय और प्रमाण के द्वारा समग्र वस्तुस्वरूप का बोध देने घाली. एकान्तवादियों द्वारा कदापि पराभूत न होने वाली, विवेकी पुरुपों द्वारा श्रद्धा करने योग्य, मिथ्या दृष्टियों द्वारा दुईय, वीतराग और सर्व पदवी को प्राप्त श्रीजिनेन्द्र देव की प्राशा (कथन ) अगर योग्य प्राचार्य, विद्वान के प्रभाव से समझ में न श्राव, बुद्धि की मंदता या क्षयोपशम की न्यूनता के कारण समझ में न श्रावे, अथवा अत्यन्त गहन होने के कारण, अनुभव-गस्य होने कारण या हेतु एवं उदाहरण पी वहां तक पहुंच न होने के कारण समझ में न श्रा, तय भी उस पर श्रद्धा करना चाहिए। ऐसे प्रसंग पर चित्त को डोलायमान न करके विचार करना चाहिए कि यह पचन सर्वज, वीतराग और हितोपदेशक जिनेन्द्र भगवान के हैं, अतएव सर्वाश में सत्य ही है। क्योकि 'नान्वथा वादिनो जिनाः' अर्थात् जिन भगवान् अन्यथावादी
ही नहीं सकते । निष्कारण उपकार करने वाले, जगत् में प्रधान, तीन काल और तीन लोक को हस्तामलंकवत् जानने वाले, राग और ऐप के सम्पूर्ण विजेता, कृतकृत्य धीजिनेश्वर देव के पचन सत्य ही होते हैं। उनके वचनों में असत्य का कुछ भी कारण नदी है।
इस प्रकार जिन पचन में सुदृढ़ श्रद्धा रम्बना, प्रद्धापूर्वक उनका चिन्तन-मनन स.रना, गूड तस्य में भी सन्देह न पारना और उनकी वचनों में मन को एकाग्र करना