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मनोनिग्रह समाधान-इन्द्रियनिग्रह का श्राशय यह नहीं है कि विषयों में उनकी प्रवृत्ति न होने दी जाय । जो विषय योग्य देश में विद्यमान होगा वह इन्द्रियों का विषय हो ही जायगा। कोई भी योगी अपनी श्रांखें सदा चन्द नहीं रखता और न कानों में ढक्कन लगाता है । इन्द्रिय-निग्रह का ऐसा अर्थ समझ लेने पर तो इन्द्रिय-निग्रह संभव ही नहीं रहेगा । इन्द्रियों को जीतने का अर्थ यह है कि इन्द्रियों. के विपयों में राग और द्वेष का परित्याग कर दिया जाय और साम्य भाव का अवलम्बन किया जाय । इन्द्रियों की समताभाव से युक्त प्रवृत्ति इन्द्रियजय में ही अन्तर्गत है । उदा. हरण के लिए भोजन को लीजिए । इन्द्रियविजयी मुनि भी थाहार करता है और इन्द्रियों का वशवती साधारण व्यक्ति भी आहार करता है । आहार के स्वाद रूप विषय में दोनों की रसना-इन्द्रिय प्रवृत्त होती है। मगर मुनि स्वादिष्ट भोजन पाकर प्रसन्न नहीं होता और निःस्वाद भोजन मिलने पर चित्त में स्वेद नहीं लाता । वह मधर पकवान और दाल के छिलके को समभाव से प्रहण करता है। इससे विपरीत इन्द्रियार्धान व्यक्ति मनोज्ञ भोजन अत्यन्त रागभाव से और असनो भोजन तीव द्वेष के लाथ, नाक-भौंह सिकोड़ता हुआ ग्रहण करता है। आहार की समानता होने पर भी चित्तवृत्ति की विभिन्नता के कारण मुनि इन्द्रियविजयी और दूसरा व्यक्ति इन्द्रियों का दास कहा जाता है।
यही वात अन्य इन्द्रियों के संबंध में समझलेनी चाहिए । मुनि भी अपने कानों से शब्द सुनते हैं और अन्य व्यक्ति भी । किन्तु गाली शादि के प्रतिशत सुनकर मुनि को खेद नहीं होता और स्तुति श्रादि के इष्ट लमझेजाने वाले शब्द सनने से उन्हें हर्ष नहीं होता। दूसरा व्यक्ति ऐसे प्रसंगों पर राग और रेप से व्याकुल हो जाता है।
इस प्रकार इन्द्रियों के विपयों में चित्त की रागात्मक और द्वेषात्मक परिणति नहोला इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करना कहलाता है। मुनिराज इसी प्रकार इन्द्रियविजय करते हैं।
मनिराज विचार करते हैं कि वास्तव में न कोई वियय प्रिय है, न अप्रिय है। प्रियता और अप्रियता तो चित्त की तरंग है। यही कारण है कि जो विषय एक समय प्रिय लगता है वहीं दूसरे समय में अप्रिय लगने लगता है । सूर्य के श्रातप से तपा इशा मनुष्य सरोवर के शीतल जल का स्पर्श करने में श्रानन्द का अनुभव करता है, किन्तु कुछ समय पश्चात्-जल में सवगाहन करने के वाद-शीत स्पर्श से व्याकल छोकर उष्ण स्पर्श जी श्रमिलापा करने लगता हैं । गालियां सुनकर मनुप्य भाग बबूला हो उठता है, पर ससुराल में दी जाने वाली गालियों से प्रसन्न होता है। इसका एक मात्र कारण यही है कि वास्तव में कोई भी विषय स्वभावतः प्रिय अथवा आमिद्ध नहीं है। प्रिय और अनिय विषय का भेद करना मन की कल्पना मात्र है। मनुष्य पहले इस कल्पना की सृष्टि करता है और फिर उसी पल्पना के जाल मे स्वयमेव फैस जाता है। योगी वस्तु के यथार्थ स्वरूप को समझते हैं अतएव में इन्द्रिय के किसी भी