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चौदहवां अध्याय
[.५३७ ]. __ भाष्यः-चिउँटी, जूं. मच्छर आदि छोटे-छोटे प्राणियों को अपने ससान समझने वाला और जगत की अनित्यता एवं दुःख मयता समझने वाला विवेकशील पुरुष ही प्रमाद रहित होकर संयम का श्राचरण करता है।
जैसा कि पहले अध्ययन में निरूपण किया जा चुका है, समस्त प्राणियों में समान अात्मा विद्यमान है । श्रात्म द्रव्य सर्वत्र एक जातीय होने पर भी जीवों में बौद्धिक, शारीरिक या. श्राध्यात्मिक अन्तर जो दृष्टि गोचर होता है, उसका कारण. कर्म है। कर्म अर्थात् श्राचरण की न्यूनाधिकता के कारण किसी को छोटे शरीर की प्राप्ति होती है और किसी को बड़ा शरीर मिलता है। इसी प्रकार बौद्धिक भेद भी ज्ञानावरण श्रादि कर्मों के कारण होता है । अतएव शारीरिक एवं बौद्धिक भिन्नता होने पर भी आत्माओं के मूल स्वरूप में किञ्चित् भी भेद नहीं है। समस्त प्राणी उपयोगमय स्वरूप वाले हैं-अनंतज्ञान, दर्शन, शक्ति श्रादि के भंडार हैं। जब आत्मा के गुणों का पूर्णरूपेण प्राकट्य होता है तब मूलगत सदृशता स्पष्ट प्रकट हो जाती है।
सभी जीव समान स्वभाव वाले हैं। जैसे एक जीव सुख की आकांक्षा करता है और दुःख से भयभीत होता है, उसी प्रकार अन्य जीव भी सुख की इच्छा रखते हैं और दुःख से बचना चाहते हैं । विवेकीजन वही है जो इस प्रकार विचार करता है कि-'जैसे मृत्यु मुझे अनिष्ट है और जीवन इष्ट है, इसी प्रकार समस्त प्राणियों को. अपनी मृत्यु अनिष्ट है और जीवन इष्ट है। मेरे साथ छल-कपट करके मुझे ठगने वाला निन्दनीय कार्य करता है, उसी प्रकार यदि मैं किसी को धोखा देता हूं तो निन्दनीय कार्य करता हूं। इस प्रकार समता भाव की आराधना करने से संयम की पाराधना होती है। जिसके अन्तःकरण में सास्यभाव का उद्रेक हो उठता है वह अन्य प्राणी को कष्ट देना अपने आपको कष्ट देने के समान अप्रिय अनुभव करता है। वह दूसरे प्राणियों के सुख के लिए इतना अधिक प्रयत्नशील रहता है, जितना अपने सुस्खा के लिए। जैसे कोई पुरुष अपने को दुःख देने की बात मन में भी नहीं आने देता, उसी प्रकार वह साम्यभाव का आराधक दूसरों का अहित करने का संकल्प तक नहीं करता। जैसे प्राप दुःख का अनुभव करके विकल हो जाता है उसी प्रकार. शान्य प्राणियों की वेदना भी उसे विकल बना देती है.। अपना दुःख उत्पन्न होने पर उसके प्रतीकार के लिए जैसे वह उद्यत होता है उसी प्रकार अन्य प्राणियों को दुःस्त्री देख कर समताभावी पुरुष अकर्मण्य होकर नहीं बैठा रहता, वरन् उस दुःख को निवारण करने के लिए पूर्ण प्रयत्न करता है।
___महापुरुषों के चरित का सावधानी के साथ अध्ययन किया जाय तो प्रतीत . होगा कि वे जगत् के दुःख को अपना ही दुःख मान कर उसके निवारण के लिए उद्योगशील बने रहते थे। यह साम्यभाव उनमें जीवित रूप से विद्यमान था। उनके अद्भुत उत्कर्ष का प्रधान कारण भी यही साम्यंभाव था।
साम्यभाव की आराधना के लिए पर पदार्थों के प्रति आसक्ति का प्रभाव आवश्यक है। जिसके अन्तःकरण में इन्द्रियों के विषयों सम्बन्धी तथा भोगोपभोग