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________________ [ १६४ वैराग्य सम्बोधन सुव्रतों का आचरण एक प्रकार की प्राध्यात्मिक औपधि है । जैसे भौतिक औषधि, भौतिक शरीर की व्याधियों का विनाश करती है उसी प्रकार सुव्रत आत्मिक विकार राग-द्व आदि का संहार करते हैं। यही कारण है कि शास्त्रों में श्राचरण की माहिमा मुक्त कंठ से गाई गई है। वस्तु स्वरूप को ठीक-ठीक समझने के लिए शान की अनिवार्य आवश्यकता है किन्तु उस ज्ञान का फल चारित्र है । जिस ज्ञान से चारित्र की प्राप्ति न हो वह शान वन्ध्य है-निष्फल है । ज्ञान की सार्थकता चारित्र .. लाभ में ही निहित है। इसी कारण यहां शास्त्रकार ने कहा है कि भूतकाल में जितन जिन हुए हैं और भविष्यकाल में जितने जिन होंगे, वे सब सुव्रत अर्थात् सम्यक चारित्र की बदौलत ही जानने चाहिए । इस प्रकार सुव्रतों का सहाल्य समझकर यथाशक्ति व्रती का पालन करना चाहिए। मोक्ष मार्ग की प्रवृत्ति सामान्यतया अनादि काल से है. और अनन्त काल तक * रहेगी। किसी काल विशेप में, किंचित समय के लिए वह रुक जाती है, पर सदा के लिए नहीं। श्रतएव अनादिकाल से लेकर अबतक अात्मायो ने जिन पर्याय प्राप्त की है। वे सभी जिन सर्वश थे। सर्वज्ञों के मत में कभी भिन्नता नहीं था सकती। सर्व का स्वरूप पहले बतलाया जा चुका है । जिसमें अज्ञान का अल्पमात्र भी अंश शेप नहीं रहता, वही सर्वक्ष पद प्राप्त करता है। ऐसे पुरुषों के मत में भेद की संभावना भी नहीं की जा सकती। मतभेद का कारण अज्ञान है, या कपाय है । वह जिन में विद्यमान नहीं है ऐसे दो व्यक्तियों में मतभेद का कोई कारण ही नहीं रहता । श्रपत्र सर्वशा ने भूतकाल में जो उपदेश दिया था, वही वर्तमान अवसर्पिणी कालीन सर्वज्ञा ने दिया है और वही उपदेश श्रागामी काल में होने वाले तीर्थकर (सर्व दंगे। सर्वज्ञों के उपदेश की कालिक एक रुपता का कारण स्पष्ट है। सत्य सनातन है। वह देश और काल की परिधि से घिरा हुश्रा नहीं है। सत्य श्राकाश की भांति व्यापक और नित्य है। यह कभी उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि उसका विनाश नहीं होता। सत्य जय शाश्वत द, ध्रुव है. अचल हैं, और सत्य ही धर्म की प्रात्मा है.तो धर्म भी शाश्वत, ध्रुव और अचल है । इस प्रकार धर्म काल भेद या देश भेद से भिन्न नहीं हो सकता। उसका स्वरूप सदा अपरिवर्तित रहता है। धर्म जय सनातन है तो उसके उपदेश में भी भेद नहीं हो सकता । इसी बाल यह कहा गया है कि भूतकाल और भविष्यकाल के जिन एक ही से धर्मतत्व का कथन करते हैं। धर्मतत्व की एकरूपता का प्रतिपादन करने के लिए मूल में 'कासवस्स अरणमचारियो' कह कर एक 'काश्यप' शब्द से ही प्रथम तीर्थकर भगवान् ऋषभदेव तपा अन्तिम तीर्थकर भगवान् महावीर का ग्रहण किया है । तात्पर्य यह कि भगबान प्रापमदेव ने जिस धर्म का उपदेश दिया था, उसो धर्म का भगवान् महावीर न निरूपण किया है। गदा यह आशंका की जा सकती है कि बीच के वाईस तीर्थकों ने चातुर्मास
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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