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________________ audinatouttarastachasammtase चौदहवा अध्याय इत्थं लब्धवरोऽथ तेष्वपि कदाप्यश्नात्यही द्विः सचेदू, श्रष्टो मयंभवात्तथाप्यसुझती सूत्तमाप्नोति ना ॥१॥ अर्थात् किली दरिद्र ब्राह्मण पर चक्रवर्ती राजा ब्रह्मदत्त प्रसन्न होगए। उन्होंने उससे मन चाहा वर मांगने की स्वीकृति दे दी । ब्राह्मण ने कहा- मुझे यह वरदान दीजिए कि आपके राज्य में सम्पूर्ण भरतक्षेत्र में प्रतिदिन एक घरमें मुझे भोजन करादिया जाय जव लच घरों में भोजन करलुंगा तो दूसरी बार भोजन करना प्रारंभ करूंगा' इस प्रकार जीमते-जीसते लस्पूर्ण भरतक्षेत्र के घरों में जीम चुकने पर दूसरी चार वारी पाना बहुत ही कठिन है। वह सारे जीवन में एक-एक बार भी सब घर में नहीं जीम पाएगा। किन्तु संभव है, दैवयोग से कदाचित दूसरी बार बारी श्राजाय, पर प्राप्त हुए मनुष्य भव को जो व्यक्ति वृथा व्यतीत कर देता है उसे फिर मनुष्य भव प्राप्त होना अत्यन्त कठिन है। . स्तम्मान हि सदनमष्ट सहित प्रत्येक मष्टोत्तरं, कोणानां शतमेषु तानपि जयत् तेऽथ तत्संख्यया: साम्राज्यं जनकात्लुतः स लभते ख्यालेदिदं दुर्घटम् , - अष्टो मर्यभवात्तथाप्यसुकृती भूपस्तमाप्नोलि २n अर्थात्-एक लौ पाठ कोने वाले एक हजार पाउ स्तम्भों को, जुए में एक भी बार बिना हारे भले ही एकसौ आठ बार जीत ले-और इस प्रकार पुत्र अपने पिता से साम्राज्य प्राप्त कर ले-अर्थात् यह अघट घटना भले ही घट जास, पर मनुष्य भव को एक बार वृथा व्यतीत कर देने वाले पुरुष को फिर मनुष्य भर की प्राप्ति होना कठिन है। वृद्धा काउपि पुरा समस्तभरतक्षेत्रस्थ धान्यावलि। . पिण्डीकृत्य च तत्र सर्षपकरणात् क्षिप्वाद केनोन्मितान! . . . प्रत्येक हि पृथक्करोति किल ला सर्वाणि चालानि चेद। . . भ्रष्टो मर्त्यभवात्त थान्यसुकृति भूयस्तमाप्नोति न ॥ ३ ॥ अर्थात् सम्पूर्ण भरत क्षेत्र के गेहूँ, जौ, मक्की, चना नादि सब धान्यों को एक जगह इकट्ठा किया जाय और उस एकनित ढेर में थोड़े से सरसों के दाने डाल दिये जाएं और अच्छी तरह उन्हें हिला दिया जाय । फिर एक क्षीण नेन-ज्योति वाली वृद्धा से कहा जाय कि इस ढेर में से सरलों बीच-बीन कर अलग करदे । वह वृद्धा ऐसे करने में समर्थ नहीं हो सकती। किन्तु किसी प्रकार अदृष्ट दिव्य शक्निक . द्धारा वह ऐसा करने में समर्थ हो भी जाय, तब भी मनुष्य भव पाकर पुण्योपार्जन न्ह करने वाले को पुनः मनुष्य भव की प्राप्ति होना इससे भी अधिक कठिन है।। (४) एक धनी सेठ के पास बहुत से रत्न थे । एक बार वह परदेश चला गया और पीछे से उसके पुत्रों ने उसके बहुमूल्य रत्न, बहुत थोड़े मूल्य में बेच डाले। रत्न खरीदने वाले वणिक विभिन्न दिशाओं में, अपने-अपने देश चले गये। सेठ पर'देश से लौटा अपने पुत्रों की करतूत जानकर क्रुध हुआ। उसने अपने पुत्रों को आशा
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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