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________________ বনী গ্রাথ भाष्यः-मिथ्यादृष्टि नास्तिक के जीवन का जव सन्ध्याकाल आ पहुंचता है, . जीवन-सूर्य जब अस्तोन्मुख हो जाता है, परलोक प्रयाण की तैयारी हो चुकती है, तब वह अपने कर्मों का विचार करता है और गुरुओं से सुने हुए आगम-प्ररूपित नरक स्थानों का स्मरण करता है तथा परलोक से भयभीत हो जाता है, उसके अन्तः करण की क्या स्थिति होती है ? यह यहां बतलाया गया है। मिथ्यादृष्टि नास्तिक पहले परलोक से पराङ्मुख होकर नाच-गान में डूबा रहता है, पर अन्त में वही गान उसे विलाप के समान कष्ट कारक प्रतीत होने लगता है। नाटक, तमाशे और खेल-जिनमें पहले वह अत्यन्त श्रानन्द का अनुभव करता था, उसे विडम्बना दिखाई देने लगते हैं। पहले वह आत्मा का अस्तित्व स्वीकार नहीं करता था-केवल शरीर की सत्ता ही उसके लिए सब कुछ थी । अतएव वह सद्गुणों द्वारा आत्मा के लौन्दर्य की वृद्धि करने का विचार भी नहीं करता था। माणिजटित सुवर्ण के अलंकारों से शरीर की शोभा बढ़ाना ही उसका एक मात्र लक्ष्य बन गया था। किन्तु जब परलोक जाने का समय आता है तव समस्त आभूषण उसे भार रूप प्रतीत होते हैं। काम-भोग आदि में सुख रूप जान पड़ते हैं, पर वास्तव में वे दुःख के कारण होने से दुःखमय हैं । नास्तिक पहले उनमें इतना अधिक प्रासक्त रहता है कि उसे अपने हिताहित का यथार्थ आन ही नहीं होता । वह दिन-रात कामभोग के उद्देश्य से ही चेष्टा करता है। उन्हीं में डूबा रहता है । अन्त में आंखें खुलने पर उसे प्रतीत होने लगता है कि सब प्रकार के कामभोग दुःखदायी हैं । इनका परिणाम एक ही जन्म में नहीं, अनेक जन्मों में दुःख रूप ही होता है। नास्तिक की ऐसी स्थिति का वर्णन यहां इल उद्देश्य से किया गया है कि लोग इसका श्रवण, पठन एवं मनन करके पहले से ही सावधान हो जाएँ । जीवन भर नास्तिकता का सेवन करके, भोगोपभोगों में मस्त रहकर, धर्म-कर्म को बिसार कर पापाचार में लगे रहने से अन्त में चेत आने पर भी कुछ विशेष लाभ नहीं हो सकता, अतएव परिमत जीवन का प्रति क्षण सत्य, अहिंसा आदि शुभ अनुष्टानों में, धर्म की आराधना में व्यतीत करना चाहिए । यही मानव-जीवन की सार्थकता है धर्माराधन के कारण ही मानव जीवन श्रेष्ठ और प्रशस्त बनता है। धर्महीन मानव-जीवन, पशु-पक्षियों के जीवन से किंचित् भी श्रेष्ट नहीं है। प्रत्युत उससे भी अधिक अप्रशस्त है । पशु-पक्षियों में योग्यता की न्यूनता होने से चे अधिक पाप का आचरण नहीं कर सकते, किन्तु मनुष्य अधिक शक्तिमान होने से अधिक पाप का संचय करता है । इस प्रकार अधार्मिक जीवन, पशुओं के जीवन से भी निकृष्ट बन जाता है।। . मूलः "जहेह साहो व मियं गहाय, मच्चू नरं नेइ हु अन्तकाले । ..
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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