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________________ [४६ष्ट 1 থার্থ নন। अंन्य को अपदार्थ समझता है पर उस बेचारे को अपनी बुद्धि की क्षुद्रता को जान लेने की भी बुद्धि नहीं है। इसी प्रकार अन्यान्य विषयों में भी वह अपनी सच्ची स्थिति से अनभिज्ञ रहता है और दूसरों की उच्च स्थिति की मर्यादा भी नहीं समझ पाता। अभिमान रूपी इस मानसिक अंधता के रोग का निवारण करने के लिए शास्त्रकार ने उपचार बताया है मादक । मृदुता, कोमल वृत्ति अथवा नम्रता का भाव ही इस रोग को दूर कर सकता है। जहां मार्दव है, अपने गुरंगों की मात्रा कों घटाकर देखने और प्रकाशित करने की हात्ति विद्यमान है, वहीं उन्नति के लिए पूरा अवकाश रहता है। ऐसा नम्र व्यक्ति यथेष्ट प्रगति कर सकता है । अतएक मान को जीतने के लिए मार्दव का विकास करना चाहिए। माया को आर्जव से जीतना चाहिए । मन, वचन और काय की सरलता प्रार्जव कहलाती है। मन में जैसी बात.हो, वही वचन से प्रकाशित करना और जो बात बचन द्वारा प्रकाशित की है वही काय के द्वारा करना, यह भाव है और इससे माया कषाय पर विजय प्राप्त की जा सकती है। आत्मा की विशुद्धि के लिए माया के परित्याग की अत्यन्त मावश्यकता है। माया को शास्त्रकारों ने शल्यों में परिगणित किया है और शस्यों का न होना व्रत पालन के लिए आवश्यक कहा है । इसका अर्थ यह निकलता है कि जिसके अन्तः करण में मायाचार विद्यमान है वह व्रती अवस्था में नहीं पा सकता । अतएव व्रतपालन के लिए निष्कपटता अनिवार्यरूपेण आवश्यक है। लोभ को संतोष से जीतना चाहिए । इस विषय का प्रतिपादन पहले किया जा चुका है, अतएव यहां पुनरावृत्ति नहीं की जाती। हां, इतना समझ रखना चाहिए, कि संतोष का भाव उत्पन्न हो जाने पर मनुष्य हीन से हीन अवस्था में, कठिन से कठिन विपदा में भी सुस्त्री रहता है । संतोषी पुरुष के चारों ओर आनन्द का ही वातावरण होता है। इससे विपरीत, असंतोषी व्यक्ति उच्च से उच्च कोटि पर पहुंच कर भी. विशाल साम्राज्य का अधिपति वन जाने पर भी, कभी सुखी नहीं वन सकता। असंतोष की लपटें उसे जलाती रहती है और वह लदेव. दुःखमय बना रहता है। लोभ काय वाले जीव संसार में सबसे अधिक है। कपायों का अल्प बहुत्व बताते हुए कहा गया है कि-मान कप्पायी जीव कोध श्रादि कपाय वालों से कम है। क्रोधी जीव मान कषाय वालों से अधिक है । मायावी क्रोधियों से अधिक है और लोभी मायावियों से भी विशेषाधिक हैं । लोभ कपाय, अन्य कपायों के अभाव हो जाने पर भी बना रहता है और दसवें गुणस्थान के अंत में नष्ट होता है। ऐसा होने पर भी स्थूल लोभ तथा अन्य क्रोध श्रादि का विनाश करने के लिए प्रत्येक को प्रया सील होना चाहिए।
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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