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* ॐ नमः सिद्धेभ्य * नियन्य-प्रवचन
॥ तेरहवां अध्याय ॥
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माना
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कषाय वर्णन
श्री भगवान्-उवाचमूलः-कोही प्रमाणो अ अणिग्गहीया, ....
माया य लोभी अपवड्ढमाणा । चत्तारि एए कसिणा कसाया, ...
- सिंचति मलाई पुणब्भवस्स ॥१॥ छाया:-क्रोधश्च मानश्चाभिगृहीती, माया च लोभन प्रवर्धमानौ ।
__चत्वार एते कृत्स्नाः कषायाः सिञ्चन्ति मूलानि पुनर्भवस्य ॥॥ शब्दार्थ:-हे इन्द्रभूति ! निग्रह न किया हुआ क्रोध और मान तथा बड़ती हुई माया और बढ़ता हुआ लोभ ये सब चार कषाय पुनर्जन्म के मूलों को सींचते हैं-हरा-भरा करते हैं।
भाष्यः-बारहवें अध्ययन में लेश्या का निरूपण किया गया है। लेश्य का स्वरूप बताते समय यह कहा गया था कि कषाय से अनुरंजित योग कि प्रवृत्ति लेश्या कहलाती है। इस स्वरूप को हृदयंगम करने के लिए कषाय के स्वरूप का प्रतिपादन करना आवश्यक है । अतः लेश्या-निरूपण के पश्चात् कषाय का निरूपण किया जाता है। कपाय शब्द की व्युत्पति इस प्रकार बताई गई है:
कर्म कसं भवो वा, कसमायोसिं जो कसाया ते - कसमाययंति व जो, गमयंति कसं कसायात आओ व उवादाणं, तेण कसाया जो कसरताया।
चत्तारि बहुवयणो, एवं विइयादोऽवि गया । भावार्थ-कप अर्थात् कर्म अथवा भव की जिससे श्राय प्राप्ति हो यह कवाय है। अथवा कर्म या संसार का जिससे श्रादान अर्थात् ग्रहण हो उसे कपाय कहते हैं। अथवा जिसके होने पर जीव कर्म या संसार को प्राप्त करे वह कपाय है। अथवा प्राय मर्यात उपादान कारण, संसार या कर्म का उपादान कारण होने से वह कषाया