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. लेश्या-स्वरूप निरूपण अशुभ व्यापार को नहीं रोकता है, पांच स्थावर एवं त्रस जीवों की हिंसा से विरत नहीं होता है, तीव्र तथा महान् श्रारंभ का सेवन करता है, जो प्रकृति से चुद्र है, जो साहसी है अर्थात् उचित-अनुचित की परवाह न करके बिना समझे वुझे किसी भी भयंकर कार्य को कर डालता है जो दोनों लोक के दुखों की शंका रहित परिणाम वाला होता है, जिसके दिल में दया नहीं है, और जो इन्द्रियों का क्रीत दास है, ऐसे पुरुष को कृष्ण लेश्या समझना चाहिए। .
कृष्ण लेश्या नारकी, तिर्यच, मनुष्य, भवनवासी देवता तथा वाण व्यंतर देवों को होती है । इसका वर्ण, गंध, रस और स्पर्श तथा फल आगे बताया जायगा। मूल:-इस्सा अमरिस अतवो, अविज्ज माया अहीरया ।
गेही परोसे य सढे, पमत्ते रसलोलुए ॥४॥ सायगवेसए य प्रारंभा, अविरत्रो खुद्दो साहसियो नरो एअजोग-समाउत्तो, नीललेसं तु परिणमे ॥५॥ छाया: ईर्ष्याऽमतपः अविद्या मायाऽहीकता.. .
गृद्धिः प्रद्वेपश्च शठः, प्रमत्तो रसलोलुपः॥ ४॥
सातागदेषकश्वारम्भादविरतः, शुद्रः साहसिको नरः। -
एतद्योगसमायुक्रा, नीललश्यां तु परिणमेत् ॥ ५ ॥ शब्दार्थः-ईर्ष्या करना, क्रोध करना, तप न करना, कुशास्त्र पढ़ना, मायाचार करना, पापाचार करने में निर्लज्ज होना, लोलुपता होना, द्वेष होना, शठता होना, मदोन्मत्त रहना, रसलोलुप्ता होना, विषयजन्य सुखों की खोज में रहना, हिंसा आदि पाप कम से विरत न होना, क्षुद्रता होना, साहस करना, इन सब लक्षणों वाला पुरुप नील लेश्या के परिणाम वाला होता है।
भाष्या-कृष्ण लेश्या के परिणामों की प्ररूपणा करने के पश्चात् क्रम-प्राप्त नील लेश्या के परिणामों का निरूपण यहां किया गया है।
जो पुरुष गुणी जनों के गुणों को और तज्जन्य प्रशंसा को सहन न कर सकने के कारण उनके प्रति ईर्ष्या का भाव धारण करता हैं, क्षण-क्षण में क्रोध करने वाला हो, जो शरीर और इन्द्रियों के पोषण में लीन रहता हुश्रा कभी तपस्या न करता हो, मिथ्यात्व वर्द्धक कुशास्त्रों का पठन-पाठन करता हो, छल-कपट करता हो, निन्दनीय कर्म करते हुए भी लज्जित न होता हो, हिंसा श्रादि कार्यों में तथा भोगोभोग के साधनों में आसक्त रहता हो, दूसरे के गुणों पर ध्यान न देकर उसके विद्यमान या अविद्यमान दोष को ही देखता हो और उसका प्रचार करता हो, जिसमें शठता भरी हो, जो प्रमाद से परिपूर्ण हो, रस-लोलुप हो, जिस किसी प्रकार संसार संबंधी सुखों की तलाश में रहता हो, प्रारंभ करने वाला हो, पाप से विरत न हो, जिसमें