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स्यारहवां अध्याय
[४२७ } (१) विष्टा धान्य का विकार है अर्थात् घान्य की विकृति रूप पर्याय है, इसी मकार सुशील शील का विकार है।
(२) सत्पुरुप विष्ट से घृणा करते हैं, इसी प्रकार सत्पुरुप कुशील से घृणा
(३) विष्टा का सेवन करने वाला शूकर पशुओं में नीच गिना जाता है, इसी प्रकार कुशील का सेवन करने वाला पुरुष, मानव-समाज में निम्न कोटि का गिना जाता है।
(४) विष्णा के संसर्ग से शारीरिक अपवित्रता होती है और कुशील के संसर्ग से शान्तरिक अपवित्रता उत्पन्न होती है ।
(५) विवेकी पुरुप जीवन का उत्सर्ग कर सकता है पर जीवन की रक्षा के लिए विष्टा का सेवन नहीं करता, इसी प्रकार सत्पुरुष जीवन का त्याग करके भी कुशील का सेवन नहीं करते।
(६) विष्टा का भक्षण अनेक प्रकार के शारीरिक अनी का मूल है, इसी प्रकार कुर्शाल-सेवन विविध प्रकार के अात्मिक अनर्थों का कारण है।
इस प्रकार कुशील को विष्टा के समान घृणाजनक, हेय और अनर्थकर समझकर विवेकवान व्यक्तियों को उसका सर्वथा परित्याग करना चाहिए।
शील जीवन रूपी पुष्प का सौरभ है। सौरभ-विहीन सुमन जिस प्रकार प्रादरणीय नहीं होता, उसी प्रकार शील-शूल्य जीवन भी सन्मान का भाजन नहीं होता। कहा भी है
सील उत्तमवित्तं, सीलं जीवाण मंगलं परमं ।
लील दुग्गाहरणं लीलं सुक्खाण कुलभवणं ॥ अर्थात् शील उत्तम धन है, शील जीरों के लिए परम मंगल रूप है, शील दुर्गति का विनाश करने वाला है और शील ही सुखों का सदन है। तथा
सील धम्मनिहाणं सील पावाण खंडग भणियं ।
लील जंतूण जए, अकित्तिमं मंडणं पवरं ॥ नर्थात्-शील धर्म का खजाना है, शील से पापों का खंडन होता है, शील इस संसार में जीवों का स्वाभाविक श्राभूपण है।
इस प्रकार शील सत्पुरुपों द्वारा प्रशंसित है। शील सलोक में और परलोक में परम फल्याण का कारण है। अतएव शील की शीतल-छाया का थाधय लेकर समस्त संतापों का अन्त करना चाहिए । सदाचार रूप शील ही सय दुत्रों का उन्मूलन करने वाला है । कुप्रवृत्तियों को प्रर्थात् कुशील को दुःखों और अनों का प्रधान कारण समझकर उनसे दूर रहना चाहिए। . सूत्रकार ने कुशील का सेवन करने वाले पुरुप को 'मृग' शब्द से उल्लिखित