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________________ . दसवां अध्याय । ३६१ ] हुए भी वहिरा है और चेतन होते हुए भी जड़ बना हुआ है । मोह के उदय ले अपने स्वरूप को ही भूल गया है। जीवन ज्यों-ज्यों अस्त की ओर गमन करता जाता है त्यों-त्यों गृद्धि बढ़ती जाति है । इन्द्रियां क्षीण होती जाती है और विषय-वासना के नवीन अंकूर फूटते जाते हैं । शरीर शिथिल होता जाता है पर लालला की लता लह-लही होती जाती है । गर्दन कांपने लगती है, मानों वह मृत्यु के आने का निषेध कर रही है, फिर भी मृत्यु समीप से समीपतर होती ही जाती है। केश सफेद होते जाते हैं, मानों वे मृत्यु का संदेश सुना रहे हैं, फिर भी वह अनसुना कर रहा है। ऐसे अज्ञान पुरुषों को सावधान करते हुए एक कवि ने कहा हैजो लो देह तेरी काहू रोग सो न घेरी, जौलों जरा नाहिं तेरी जासौ पराधीन परि है। जौ लौ जम नामा वैरी देय ना दमामा, जो लो मानै कान रामा वुद्धि जाई ना विगरी है ॥ तो लो मित्र मेरे निज कारज सवारले रे, पौरुष थकेंगे फेर पीछे कहा करि है ? अहो आग आये जव झौंपरी जरन लागी, कुआ के खुदाएँ तब कौन काज सरि है ? जब तक शरीर को किली व्याधि ने नहीं घेरा है, जब तक बुढ़ापा निकट नहीं श्रआया है, जब तक मौत नामक शत्रु अपने नगाड़े नहीं बजाता जब तक वुद्धि नहीं सठिया गई है, तब तक अपना काम बनालो-श्रात्मा का कल्याण साधकर जीवन का महान् उद्देश्य पूर्ण करलो । उसके बाद वृद्धावस्था आजाने पर पुरुषार्थ थक जायगा तब क्या कर सकेगा? अरे भोले ! आग नजदीक आने पर जब झोपड़ी जलने लगी, तर कुंश्रा खुदवाने से क्या काम चलेगा? मृत्यु सन्निकट आजाने पर कुछ भी हो सकेगा। तात्पर्य यह है कि जब तक शरीर सशक्त है, इन्द्रियां काम दे रही हैं तब तक धर्म की साधना कर लेना चाहिए । वृद्धावस्था में धर्म साधना का विचार करना अज्ञान है प्रथम तो यहभी कोई नहीं जानता कि वृद्धावस्था श्रा पाएगी भी या नहीं? फ्योंकि युवावस्था में ही अनेक मनुष्य मरण-शरण चले जाते हैं। कदाचित् वह आई भी तो वह अमृतक-सी अवस्था होती है। उसमें नाना प्रकार के रोग, नाना प्रकार के कष्ट और भा घेरते हैं, जिनके कारण अशान्ति और असाता का अनुभव करना पड़ता है । उस अवस्था में धर्म की विशिष्ट प्रति पालना संभव नहीं है । इसलिए सब प्रकार का सुयोग पाकर प्रमाद नहीं करना चाहिए। अप्रमत्त अवस्था में रह कर संयम आदि का अनुष्ठान करके जरा-मरण कोही जीत लेने का प्रयत्न करना चाहिए। मूल:-अरई गंडविसूइया, पायंका विविहा फुसति ते । विहडइ विद्धंसइते सरीरयं, समय गोयम !मा पमायए २२
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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