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________________ ३८६ ] प्रमाद-परिहार पुलिन्दः शबरो दस्युः, निषादो व्याधलुब्धको । घानुष्कोऽथ किरातश्च, सोऽरण्यानीचर स्युतः॥ ' अर्थात् जंगलों में रहने वाले मनुष्य पुलिन्द, शबर, दस्य, निषाद, व्याध, लुब्धक, धानुष्क और किरात कहलाते हैं । यह लोक जीव-हिंसा, लूट-खसोट श्रादि पापमय प्रवृत्तियों में ही लदा लीन रहते हैं । इन वेचारों को धर्म की भावना का स्पर्श भी नहीं हो पाता। अगर पुण्य का अतिशय अत्यन्त प्रबल हुआ तो सभ्य शिष्ट धर्म भावनावान् मनुष्यों के बीच रहने का सुअवसर प्राप्त होता है। फिर भी वहाँ अनेक मनुष्यों में से कोई अनार्य कर्म करते हैं जैसे कसाई प्रभृति । इस प्रकार अनार्यत्व से बचकर श्रार्यत्व को प्राप्तकर लेना इसी प्रकार महान् दुर्लभ है, जैले अतल जलधि में गिरी हुई सूई दुर्लभ है। जिन्हें मनुष्यत्व और आर्यत्व दोनों की प्राप्ति हुई है, वे अत्यंत पुण्यशाली है, वे धन्य हैं। उन्हें अमूल्य अवसर मिला है। इस अवसर को पाकर उन्हें एक समय ___ का भी प्रमाद न करना चाहिए। मूलः-लघृण वि आरियत्तणं अहीणपंचिंदियया हु दुल्लहा । विगलिदिया हु दीसइ, समयं गोयम ! मा पमायए ॥१७॥ छायाः- लब्ध्वाऽपि प्रार्यत्वम्, अहीनपञ्चेन्द्रियता हि दुर्लभा। विकलन्द्रिया हि दृश्यन्ते, समयं गौतम ! मा प्रमादीः ।। १७ ॥ . . शब्दार्थ:--हे गौतम ! आर्यत्व प्राप्त हो जाने पर भी परिपूर्ण पंचेन्द्रियों का प्राप्त __ होना निश्चय ही कठिन है, क्योंकि बहुत से जीव विकल इन्द्रियों वाले भी देखे जाते हैं । । भाष्यः-धर्म-साधना के अवसर की उत्तरोतर दुर्लभता का प्रतिपादन करते हुए सूत्रकार ने यहां यह बतलाया है कि यदि कोई जीव मनुष्यत्व प्राप्त करले और आर्य जाति में जन्म भी ग्रहण करले, तव भी यदि पांच इन्द्रियों में से कोई एक भी इन्द्रिय काम की न हुई तो भी धर्म की उपासना सम्यक् प्रकार से नहीं हो पाती। कोई जीव जन्म से अंधे होते हैं, कोई वहरे होते हैं, कोई मूक होते हैं और कोई लूले लंगड़े होते हैं। ऐसे लोग संयम की साधना और धर्म-लाभ करने में प्रायः समर्थ नहीं होते। ऐसी अवस्था में जिन्हें परिपूर्ण पांचों इन्द्रियां प्राप्त हो गई हैं उन्हें अपने श्राप को अतीव भाग्यशाली समझकर इस अवसर का परिपूर्ण लाभ उठाना चाहिए और एक समय मात्र का भी प्रमाद न करते हुए धर्म की आराधना करनी चाहिए । मूलः-अहीणपंचिंदियत्तं पि से लहे, उत्तमधम्मसुई हु दुल्लहा। . कुतित्थिनिसेवए जणे,समयं गोयम ! मा पमायए १८
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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