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________________ [ ३७६ - प्रमाद-परिहार से स्पष्ट रूप से ज्ञात होगा कि कितने लम्बे समय के अनन्तर, कितनी घोरतम यातनाएँ सहन करने के पश्चात इस पर्याय की प्राप्ति होती है। . यहां पृथ्वीशाय की स्थिति क्तलाई गई है । स्थिति दो प्रकार की होती है(१) भवस्थिति और (२) कायस्थिति । सिर्फ एक भव की स्थिति को भवस्थिति कहते हैं और उस काय में अनेक भव करते हुए भी निरन्तर उसी ज्ञाय में रहने की समयमर्यादा काय-स्थिति कहलाती है । शास्त्रकार ने यहां कायस्थिति का वर्णन दिया है अर्थात् जीव एक बार जब पृथ्वीकाय में जाता है तो कर्म-शेग से असंख्यात काल तक उसी अवस्था में रहता है-पुन:पुनः जन्म मरण करता रहता है पर उसी पर्याय में उत्पन्न होता है । यह पृथ्वीकाय की कायस्थिति है । इसकी जघन्य भवस्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट शुद्ध पृथ्वीकाय की १२ हजार वर्ष की तथा खरपृथ्वीकाय की २२ हजार वर्ष की है। पृथ्वीकाय स्वभावतः कठोर है, वर्णतः पीत है और संस्थान की अपेक्षा मसूर . की दाल के समान है। पृथ्वीकाय की १२ लाख कुलकोटि हैं। मूलः-प्राउक्कायमइगो, उक्कोसं जीवो उ संवसे। कालं संखाईयं, समयं गोयम ! मा पमायए ॥६॥ तेउक्कायमइगो, उक्कोसं जीवो उ संवसे। कालं संखाइयं, समयं गोयम ! मा पमायए ॥७॥ वाउक्कायमइगो, उक्कोसं जीवो उ संवसे । कालं संखाईयं, समयं गोयम ! मा पमायए ॥८॥ छाया:-अपकायमतिगतः, उत्कर्पतो जीवस्तु संवसेत । . कालं संख्यातीतं, समयं गौतम !मा प्रमादीः ॥६॥ : तेजस्कायमतिगतः, उत्कर्पतो जीवस्तु संवसेत्। - कालं संज्यातीतं, समयं गौतम! मा प्रसादीः ॥७॥ .. वायुकायमतिगतः, उत्कर्षतो जीवस्तु संवसेत । काल संख्यातीतं, समयं गोतम ! मा प्रमादीः॥८॥ शब्दार्थ:-हे गौतम ! जलकाय में गया. हुआ जीव उत्कृष्ट असंख्यात काल तक वहां निवास करता है, इसलिए एक समय मात्र का भी प्रमाद न करो। हे गौतम ! तेजकाय में गया हुआ जीव वहां उत्कृष्ट असंख्यात काल तक निवास करता है, इस लिए एक समय मान का भी प्रमाद न करो। हे गौतम ! वायुकाय में गया हुआ जीव उत्कृष्ट रूप से वहां असंख्यात काल तक निवास करता है, अतः एक समय का भी प्रमाद न करो।
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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