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________________ : • [ ३७४ ] प्रमाद - परिहार सार यह है कि जो प्रायु श्रध्यवसान, निमित्त आदि कारणों से नियत समय से पूर्व ही भोग ली जाती है वह सोपक्रम श्रायु कहलाती है । जो आयु नियत समय तक - पहले बांधी हुई काल मर्यादा के अनुसार ही भोगी जाती है, वह निरूपकम कहलाती है । उपक्रम विष, शस्त्र, भय आदि है, जिनसे आयु निश्चित समय के पूर्व ही मुक्त होकर टूट जाती है । उनका उल्लेख पहले किया जा चुका है। यहां शास्त्रकार यह प्रकट करते हैं कि यदि श्रायु निरूपक्रम हो, उसे अकाल में नए करने के साधन विद्य. मान न हों तो भी वह सदा विद्यमान नहीं रह सकती वह भी अल्पकालीन ही है । और जो आयु सोपक्रम होती है वह भी अस्थिर ही है । उपक्रमों का संयोग मिलते ही उसका अन्त हो जाता है । उपक्रमों का वर्णन इस प्रकार किया गया है:दंड-कस-सत्थ-रज्जू, उद्गपडणं विसं वाला | सीरहं अभयं, खुहा पिवासा य वादी य ॥ मुत्त पुरीसनिरोदें, जिन्नाजिन्ने य भोयां बहुसो | घंसणघोलन पील- आाउस्त उवक्कमा एए ॥ अर्थात्-दंड, चावुक, तलवार बंदूक आदि शस्त्र, रस्ती, अग्नि पानी में डूबना, विष, सर्प, शीत, उष्ण, रति, भय, भूख, प्यास, रोग, मूत्रनिरोध, मलनिरोध, कच्चा पक्का भोजन, अधिक भोजन, घिला जाना, मसला जाना, कोलू, आदि में पेरा जाना, यह सब आयु के उपक्रम हैं । इनसे अकाल में ही आयु का अन्त श्राजाता है । यह उपक्रम उपलक्षण मात्र हैं । इनके अतिरिक्त भूकंप, मकान का गिरना श्रादि श्रन्यान्य कारणों से भी आयु का अकाल में विनाश हो सकता है ।. . इन निमित्तों से अनगिनते प्राणियों के प्राणों का अन्त होते देखा जाता है । इससे सहज ही यह कल्पना हो सकती है कि जीवन को नष्ट करने वाली कितनी अधिक सामग्री संसार में भरी हुई है । इतने विरोधियों और विघ्नों के विद्यमान होते हुए भला कौन महासाहसी व्यक्ति भी कल तक का भरोसा कर सकता है ? श्रतः भव्य जीवों ! जीवन का विश्वास न करके, आत्महित के साधक कार्यों में ही अहर्निस रत रहो । शीघ्र से शीघ्र महान उद्देश्य की प्राप्ति हो, ऐसा प्रयत्न करो । तनिक भी प्रमाद न करो भगवान् ने इसीलिए कहा है-गौतम ! समय मात्र भी प्रमाद न करो । भवे, चिरकाले वि सव्वपाणिणं । गाढा विवाग कम्मुणों, समयं गोयम ! मा पमायए । मूल :- दुल्ल खलु माणुसे भवे, चिरकालेण छाया:-- दुर्लभः खलु मानुष्यो भवः, चिरकालेनापि सर्वप्राणिनाम् । गाढव विपाकः कर्मणां समयं गौतम ! मा प्रमादीः ॥ ४ ॥ शब्दार्थः-हे गौतम् ! सब प्राणियों को, मनुष्य भव चिरकाल तक भी दुर्लभ हैदीर्घकाल व्यतीत होने पर भी उसकी प्राप्ति होना कठिन है, क्योंकि कर्मों के फल प्रगाढ़ हूँ | इसलिए समय मात्र का भी प्रमाद न करो ।
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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